हास्य व्यंग्य

व्यंग्य – पहले मैं !

जनता से लेकर नेता तक,चमचा से लेकर भगौना तक,चम्मच से लेकर दौना तक,वाचाल से लेकर मौना तक ‘पहले मैं’ का फॉर्मूला लागू है। ‘पहले आप’ तो केवल सैद्धांतिक सत्य हो सकता है,किंतु हर आदमी और औरत को ‘पहले मुझे’ , ‘पहले में’ , ‘पहले मेरा’ का संस्कार मन में रचा -बसा है।वह नहीं चाहता/चाहती कि किसी और को कुछ भी पहले मिले! यदि मिले तो मुझे ही पहले मिले। अब इस भावना के क्या लाभ या हानियाँ हैं;उनका विचार-विमर्श आगे करने पर ही पता चलेगा। इतना अवश्य है कि इस धरा धाम पर सब ‘पहले मैं’ की होड़ मची हुई है।

कभी मंदिरों में ,कभी स्नान घाटों पर,कभी रेलवे स्टेशनों पर, कभी बुफे स्टालों पर, कभी बड़े- बड़े समारोहों में ‘पहले मैं’ के लिए लोग आदमी को आदमी न समझकर उन्हें कुचलते -रौंदते हुए बेतहासा दौड़ पड़ते हैं। ‘पहले मैं’ यह की हास्यास्पद भीड़ हृयविदारक बन जाती है।अखबार ,टीवी और सोशल मीडिया की सुर्खियाँ बन जाती है।

यहाँ कोई किसी का शुभचिंतक नहीं है। सबको अपनी पड़ी है। सब अपनी खुशहाली के लिए परेशान हैं। ‘भाड़ में जाए जनता,अपना काम बनता।’ बस यही सूत्र यत्र तत्र सर्वत्र काम कर रहा है।किसी को धैर्य नहीं है। जब कि धर्म के दस लक्षणों में धैर्य को चोटी का स्थान मिला हुआ है।दूसरों को धर्म के लक्षणों की सीख देने वाले सर्वाधिक अधेर्यवान सिद्ध साबित हो रहे हैं। यदि ‘पहले मैं’ की बात न होती तो महाकुंभ में भीड़ की भेड़चाल भेड़दौड़ में न बदलती और इतने अधिक नर नारी और बाल वृद्ध हताहत नहीं होते। हर मनुष्य का यह कर्यव्य हो जाता है कि वह ऐसे अवसरों पर पहले दूसरों को अवसर प्रदान करे। किन्तु जब स्व- धैर्य ही मर जाए तो भगदड़ तो मचेगी ही और पहले लड्डू खाने की ललक उसकी जान ही ले लेगी। लोग सोचते होंगे कि कहीं त्रिवेणी का जल ही खत्म हो जाए और वे नहा कर पुण्य लाभ अर्जित करने से वंचित हो जाएँ।

1991 में शीतलाखेत(अल्मोड़ा) की उच्च पर्वतीय शीतल चोटियों पर रोवर स्काउट लीडर की ट्रेनिंग लेते समय हमें यह सिखाया गया था कि स्काउट का संदेश वाक्य है ‘मैं नहीं, पहले आप’ ,जिसे हमने कदम -कदम पर सत्य होते हुए देखा और अनुभव किया। इसके विपरीत जब जन समाज और देश की ओर देखा तो इसके विपरीत ही पाया। अब चाहे राशन की दुकान हो या गैस वितरण की कतार ,शादी ब्याह में बफर की दावत हो या मेलों की भीड़ ;सब जगह ‘पहले मैं’ का रूप ही साकार होता हुआ पाया।

सिद्धांत और व्यवहार का यह अंतर ही ‘पहले मैं’ सूत्रधार है। हर आदमी अपने से आगे जाता हुआ किसी को देखना नहीं चाहता। मुँह में राम बगल में छुरी का यह बहुत सुंदर प्रतिदर्श है। इस भेड़दौड़ से भेड़चाल ही बेहतर है क्योंकि भेड़ों में इतना धैर्य तो है ,जो आदमी में नहीं है।सही अर्थ में भेड़ें धैर्य का जीवंत स्वरूप हैं। धैर्य का आदर्श हैं। भले ही वे एक कूप में गिरें ,किंतु धैर्य के साथ ही। वे हड़बड़ी में ऐसा नहीं करतीं। उन्हें कोई जल्दी नहीं आगे वाली से भी आगे जाने की। ‘चरैवेति चरैवेति’ के सिद्धांत सूत्र की वे सच्ची अनुगामिनी हैं। वे ‘पहले मैं ‘ ,’पहले मैं ‘ से जान गँवाने में कोई रुचि नहीं रखतीं।

आदमी तो भेड़ से भी पीछे छूट गया। बेतहासा दौड़ती हुई भीड़ का विहंगम दृश्य कितना हास्यास्पद लगता है,यह अकल्पनीय नहीं है।मानो आदमी की बुद्धि पगला गई हो। यह लुटेरी वृत्ति कदापि शोभनीय नहीं है। मरने वालों पर हँसा तो नहीं जा सकता। किन्तु आदमी जैसे ‘बुद्धिमान’, ‘प्रज्ञावान’, ‘धनवान’ और ‘महामानव’ की बुद्धि पर तरस तो खाया ही जा सकता है। मिलावटखोरी जिनके लिए पाप नहीं है, गबन जिनके लिए अपराध नहीं है, रिश्वत लेना जिनका धर्म है, ठग लेना जिनका कर्म है, अपहरण,चोरी ,हत्या, बलात्कार जिनके खून में समाए हैं ,वे त्रिवेणी नहाकर पुण्य के बोरे भर लाए हैं। ‘पहले मैं’ के पुण्य प्रताप को वे लूट लाए हैं। जिन देशों में गङ्गा नहीं ,वे या तो बहुत बड़े अभागे हैं या पाप ही न करते हों,ऐसा भी हो सकता है। मर्ज की दवा होती है। जहां मरीज न हों ,वहाँ हॉस्पिटल खोलकर भी क्या होगा ?

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि आदमी ‘अधैर्य की प्रतिमूर्ति’ है। वह सबसे पहले अपना भला चाहता है। सब जाएँ भाड़ में, पहले उसका काम हो जाए। ‘मैं’, ‘मेरा’, ‘मेरे’ का यह दुर -भाव जन हितकारी तो कदापि नहीं हो सकता। वह समय अब नहीं रहा जब हमारे मन और मानवों में यह वाणी गूँजती रहती थी:

‘सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु मिरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यंतु मा कश्चित दुःखभाक भवेत।’

आज सर्वत्र यही गूँज रहा है:

सदा सुखी मैं ही रहूँ, मैं ही रहूँ निरोग।
देखूँ मैं अच्छा- भला,दुख का मुझे न योग।।

गङ्गा में पहले लगे, गोता मेरा एक।
मैं ही पहले पूज्य हूँ, मुझसे और न नेक।।

लिए कटोरा हाथ में,खड़ा बफर के बीच।
तंदूरी रोटी मुझे, लूँ पहले मैं खींच।।

भेड़दौड़ में मैं चलूँ, आगे – आगे दौड़।
सभी रहें पीछे खड़े, टापें निज सिर फोड़।।

‘पहले मैं’ के मंत्र का, करता हूँ मैं जाप।
पहले ही पा लूँ सभी, कर्म न कोई पाप।।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040

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