लकड़ी का बुरादा
नारियों के अरमान
गिर जाते हैं कट कट कर
जैसे लकड़ी का बुरादा,
गिरता रहता है कट कट बिना दर्द,
थोड़ी बड़ी क्या हुई डाल देते हैं बोझ,
उभर आती है पुरुषवादी सोच,
डालते हैं हर एक शब्दों से नोच,
कोई नहीं पूछता उनके अरमान,
देते हैं नीची निगाहों की फरमान,
उछलती कूदती स्वच्छंद लड़की
बंध जाती है पुरुषों के बनाये बंधनों से,
जकड़ी रहती है सोने चांदी के कंगनों से,
जैसे पूरे परिवार की सेवा का भार
केवल और केवल उन पर होता है,
बताओ उनकी आशाएं,इच्छाएं,कामनाएं
किसी मर्द से कमतर होते हैं?
सास-ससुर,देवर-देवरानी,पति-बच्चे
क्या इतना ही है उनका संसार,
घुटकर रह जाती है संभावनाएं अपार,
बन जाती है कटते हुए लकड़ी के
छोटी छोटी बुरादों की तरह,
जो दर्द की परवाह न कर
गिरती रहती है टुकड़ों में,
और अंत में जलना ही होता है
उन मासूम लकड़ी के बुरादों को।
— राजेन्द्र लाहिरी