कविता

आओ,
सोये हुए सपनों पर
पंख लगाते हैं
तोड़ते हैं कसी बेड़ियाँ
थोड़ी दौड़ लगाते हैं
भागते हुए समय के साथ
असंभव भी नहीं हैं फिर से पनपना
तो,
हँसते हैं, बोलते हैं
और खिलखिलाते हैं।।

— साधना सिंह

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)

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