कितनी बदल गई होली
आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व वाराणसी जैसा बिंदास शहर, और वहां की अल्हड़ होली। फागुनी बहार, गर्मी और सर्दी के मिलन के साथ खुशनुमा मौसम का आनंद लेते हुए पूर्ण उत्साह और उल्लास के साथ शिवरात्रि के बाद ही होली की तैयारी हर घर में पापड़, चिप्स और कांजी बनाने से शुरू हो जाती थी । होली मतलब हुड़दंग । होलिका में घर के बाहर रखा किसका लकड़ी का गेट या टूटा तख्त जलेगा , पता नहीं होता था । जिसका सामान होलिका में दहन हुआ, उसके द्वारा हल्की-फुल्की नाराजगी से ही काम चल जाता था । क्योंकि, संयम और धैर्य कभी हमारे समाज का आभूषण हुआ करते थे । गाली खाकर भी सामान उठाने वाले युवा वर्ग द्वारा कोई हिंसक प्रतिक्रिया नहीं ।
सुबह होते ही बच्चों की पिचकारी, गुब्बारे शुरू हो जाते । नौ – दस बजे के आसपास, घर से निकलते अलसाये से पुरुष, रंग गुलाल लेकर एक दूसरे को घर के बाहर खींचते, रंग लगाते, गले मिलते देखे जाते थे । घर-घर जाकर रंग पुते मुँह के साथ ही घरों में बने पकवान गुजिया , लड्डू , मठरी सहज भाव से उदरस्थ कर लिए जाते थे । फिर उसी टोली में शामिल कर ली जाती भाभियाँ ,जो देवरों से हँसी ठिठोली करते-करते अपनी नन्दों और सासों के साथ घर से निकल महिलाओं की अलग टोली बना होली का त्योहार पूरे हर्षोल्लाह से मनातीं । शाम को नए कपड़े पहन गुलाल के साथ प्रणाम कर बड़ों का आशीष ग्रहण करने की भी प्रथा थी ।
विकासशील देश की यह होली अब मात्र निम्न मध्यम वर्ग की होकर रह गई है । अपने को विकसित कहने वाला अभिजात्य वर्ग होली को ‘गंदगी का त्योहार’ कहकर अपमानित करने से भी नहीं चूकता । प्रकृति ने भी अब रंग बदल लिया है । किसी- किसी वर्ष जुकाम देती बेहद सर्दी तो किसी वर्ष बेहद गर्मी से पसीना पसीना हुई होली अपने उमंग और उल्लास को भी धीरे-धीरे खो रही है । स्किन केयर के नाम पर रंगों से परहेज करने वाले, डाइटिंग के नाम पर पकवान से मुख मोड़ने वाले, पानी की बर्बादी का रोना रोने वालों का एक बड़ा समूह दिखाई देने लगा है । सामाजिक ताने-बाने को छिन्न- भिन्न करने वाला यह वर्ग, घर के अंदर रहकर टीवी देख कर मोबाइल पर संदेशों का आदान-प्रदान कर प्राकृतिक होली के नैसर्गिक स्वरूप को भुला कर इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के माध्यम से वर्चुअल होली को अपने तरीके से मना रहा होता है । क्योंकि, बाहर निकल नहीं सकते । दुकाने बंद होती हैं और हमारे आपके जैसे निम्न मध्यम वर्गीय लोग रंग और भांग का मजा लेते घर के बाहर आज भी पाए जाते हैं । कहीं उन्होंने घसीट लिया तो……. ओह नो…………!
— बृजबाला दौलतानी