धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

फागुनी लोक लहरियों पर थिरक रहा है दक्षिणांचल

            अमराइयों में कूकती कोयल ने बसन्त के आगमन का संदेश दिया, प्रकृति ने धानी चूनर ओढ़ी, खेतों में फूली पीली सरसों ने मादक रंग बिखेरा और फागुन की मदभरी बयार शिरा-शिरा में आनंद और मस्ती का संगीत छेड़ गई। केवल अल्हड़ किशोरों को ही नहीं वरन् आबाल-वृद्ध सभी नर-नारियों को यौवन रस से सराबोर कर देने वाला फागुन माह यों तो हमारे यहाँ का सर्वाधिक उमंग, आनन्द और मस्ती भरा महीना है।

            होली के रंगों में रंगा फागुन वैसे तो पूरे भारतवर्ष ख़ासकर उत्तर भारत में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है पर लोक संस्कृतियों के इस समन्वित दक्षिणांचल में इसकी छटा कुछ अलग ही रंग बिखेरती है। यहाँ  दो-चार दिन नहीं, बल्कि पूरा पखवाड़ा और माह भर एक जीवन्त उत्सव में तब्दील हो जाता है जब चंग पर पड़ती मादक थाप से थिरक उठता है समूचा जनजाति परिवेश।  नगरीय संस्कृति में त्योहार वैसे भी अपना परम्परागत स्वरूप खो कर बहुधा कृत्रिम और रसहीन होते चले जा रहे हैं, जहाँ उल्लास और आत्मीयता का स्थान औपचारिकताओं ने ले लिया है। ऐसे में साँंस्कृतिक, परम्परागत एवं सहज स्वाभाविक जीवन के रंग आँचलिक परिवेश में आज भी एक अनूठी ताजगी लिये दिखाई देते हैं। होली के दस दिन पूर्व ही शुरू है हाटों, बाजारों और मेलों में वनवासियों की रेलमपेल।

            आम तौर पर खेती-बाड़ी पर निर्भर रहने वाले वनवासी फसल की कटाई से फुरसत पा जब एक राहत भरी साँस लेते हैं तभी शायद छू जाता है अमराइयों की मादक गंघ का तीव्र झोंका उनके मन-प्राणों को। महुए की मदिर गंध वातावरण में एक उन्माद सा घोलती है और निंबोलियों की भीनी-भीनी खुशबू में हिलोरें लेने लगता है यौवन का ज्वार।  गली -कूचों, गाँव-बीहड़ों और ढाणियों में बिखरने लगता है एक मादक संगीत।             प्रकृति से बेहद जुड़ाव रखने वाले वनवासियों में त्योहार मनाने की अपनी एक विशिष्ट परम्परा रही है। उल्लास के रंग में सराबोर गैर नृत्य समूहों को होली के कई दिन बाद तक उसी अल्हड़ मस्ती का रंग बिखेरते जहाँ-तहाँ देखा जा सकता है। इस उमड़ते हुए ज्वार को देख कर लगता है जैसे किसी के रोके रुकने वाला नहीं, यह अन्तर वेग। गाँव-शहर, मेलों, हाट-बाजारों में फागुन के रंग उण्डेलती, पुष्पहारों से सजी ये टोलियाँ एक विशेष आकर्षण से युक्त होती हैं। थिरकते हुए पग और हाथों में काँपती तलवार श्रृंगार और पौरुष का एक समवेत और मनोरम आकर्षक दृश्य उपस्थित करते हैं।

            वनवासी अंचलों में ये दिन सामाजिक मिलनोत्सव के साथ-साथ मदनोत्सव के भी होते हैं। कौमुदी महोत्सव की वर्षों पुरानी परम्परा को आज भी जीवन्त बनाए हुए हैं ये जनजातीय क्षेत्र। ये दिन प्रणय पर्व के रूप में मनाये जाते हैं। मध्यप्रदेश के वनवासी अंचलों में इन्हीं दिनों ’भगोरिया’ मनाया जाता है जो इनका प्रणय पर्व भी होता है। राजस्थान, गुजरात और मध्यप्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में इन दिनों सर्वत्र फाल्गुनोत्सव एवं विवाहोत्सव की झलकियाँ और ढोलक की थाप पर गूंजता लोक संगीत एक अजीब सा समा बाँधे रखता है ।

            गांव-गांव के वनवासी स्त्री-पुरुष अपने परम्परागत परिधानों-अंगरखा, काली टिपकियों वाली लाल चूनरी-ओढ़नी तथा रजत-स्वर्ण आभूषणों से लक-दक, लाठियां और तलवारें लिए, कानों पर लाल-पीले पुष्प चढ़ाये तथा गहरे रंग के रूमाल गले में बाँधे, आँखों पर अलग-अलग रंगों का चश्मा चढ़ाये कुछ उत्साही युवक भी अपनी एक अलग छवि लिए उत्सव में शामिल दिखाई देते हैं। फिर तो शहर-गाँव के हाट बाजार हों या धूलभरी वीथियां, बलिष्ठ कद-काठी के वनवासी युवक और लावण्य बिखेरती युवतियों के समूह निर्द्वन्द्व भाव से नृत्य की ताल पर थिरकते-झूमते, पाँव के घुघरुओं की खनक बिखेरते श्रृंगार गीतों की स्वर लहरियों से वातावरण को निनादित करते हुए सम्मोहक परिवेश रचते चलते हैं।

            गैर और डाण्डिया वनवासियों का सर्वाधिक प्रिय और लुभावना नृत्य है। मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान का यह वनवासी अंचल जब अपने सम्पूर्ण यौवन के साथ थिरक उठता है तो ऐसा लगता है जैसे इनमें भारत की आदि संस्कृति के प्राण रूपायित हो रहे हों। डाण्डिया गैर नृत्य में स्त्री-पुरुष लाठियों-तलवारों को परस्पर टकराते हुए सुमधुर धुनों पर ठेठ वागड़ी लहजे में गाते-थिरकते हैं तो सारा वनाँचल, यहाँ तक कि पहाड़ियों में भी सुमधुर धुनों की अनुगूंज दूर-दूर तक सुनाई देने लगती है।

गैर रमवा जईये रे जईये,  ऐ कारी, मंगली गैर रमवा जईये

लालूड़ो रामा ने हाते गैर मा लई जईये,   गैर रमवा जईये, जईये रहे जईये…………।

            ढोल-ढमाकों की मादक थाप से शुरू होता यह गैर नृत्य हौले-हौले समवेत स्वरों की संगत करता हुआ गीत और ऊँचाइयों को छूता चला जाता है। पृथ्वी पर गंधर्वां के उतर आने का दृश्य भी संभवतः ऐसा ही होता होगा। यही तो वे दिन हैं फागुन के जब वनवासी मस्ती का सागर उठान पर ला देते हैं, रोम-रोम उल्लास एवं स्नेहानन्द से आप्लावित हो उठता है, ख़ासकर जब परस्पर तेज संवादों व धारदार गीतों की बरसात हो और यह भी श्रृंगार से भरपूर, तब की तो बात ही क्या।

            इन्हीं दिनों पान की दुकानों पर बीड़े चबाते, होंठों को लाल किए परस्पर हास-परिहास में डूबे किशोर-किशोरियों का उल्लास भी देखने योग्य होता है। फोटोग्राफी का एक अद्भुत चाव दिखाई देता है इन युवक-युवतियों में, जिसके वशीभूत हो पूरे परिवार एवं इष्ट आत्मीयजनों के साथ अपनी छवि को कैमरे में कैद कराने के लिए इनका तांता लगा रहता है। वागड़ी गीतों एवं संवादों के कसैट्स चारों और बजते हुए फाल्गुनोत्सव का समा बाँधते रहते हैं।

            यह बात अलग है कि विकास और प्रगति के साथ-साथ गीतों के मौलिक रूप एवं विषय वस्तु में कुछ हद तक आधुनिकता का समावेश हुआ है और अब लोकगीतों में स्थानीय विकास और परिवेशीय बदलाव की झलक भी मिलने लगी है। साक्षरता एवं नारी चेतना के साथ-साथ आधुनिक जलस्रोतों सहित अनेक नवीन आयामों भरा निनाद भी इनमें समाहित हुआ है। रस बरसाती गैर नृत्य समूह टोलियाँ अपने अन्तर के आवेग को तो ध्वनित करती ही हैं, शहरों और गाँवां में लोकानुरंजन की सशक्त भूमिका भी निभाती हैं। माटी की सोंधी गंध से महके इन नृत्यों का अपना एक अप्रतिम आनन्द होता है। इनके फागणिया गीत प्रेम रस से परिपूर्ण हुआ करते हैं और उनका भावनात्मक पक्ष अत्यन्त प्रबल होता है जैसे-

’ पीरी सुनड़ी धूर मा पड़े है रे कालू,   हईयू उड़ी जाय गैर रमवा ने हाते

ऐ.. ऐ… ऐ … फागणियो तने तेड़ावे,    आव मारा गाम बजारे,   फागणियो तने तेड़ावे……

            विस्मय होता है यह देखकर कि रात-दिन अभावों और विपन्नताओं में जिन्दगी बसर करने वाले ये वनवासी कहाँ से बचा कर रखते हैं इतना शहदिया जीवन रस, जो सम्पूर्ण नगरीय संस्कृति को आप्यायित कर देने की क्षमता रखता है। जीवन जीना शायद इन्हें ही आता है।

            हर रंग और हर रस का आस्वादन करते हुए अपनी सादगी और उछाह में सम्पूर्ण संस्कृति को उजागर करने वाले वनवासियों का यह उत्सव याद दिलाता है पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी की यह पंक्ति – ’ बसन्त आता नहीं, लाया जाता है।’ ग्रीष्म की प्रचण्ड दुपहरी में फूलता हुआ पलाश भी ऐसे ही किसी बसन्तोत्सव का संकेत देता है, अनुराग की लाल चटख लालिमा बिखेरते हुए।

            होली के बाद कुछ प्रमुख स्थानों पर गैर नृत्योत्सव के बड़े-बड़े मेले लगते हैं जिसमें विभिन्न गाँवों से हजारों की संख्या में आने वाले वनवासी स्त्री-पुरुष घण्टों तक सामूहिक गैर खेलते हैं। नृत्य में तन्मय वनवासी अपनी सारी वेदनाओं को दरकिनार कर उन्मुक्तता से निरन्तर मग्न हो नाचते रहते हैं। इस दृष्टि से जनजातीय स्त्री-पुरुषों में भेदरहित समानता का अद्भुत रूप दिखायी देता है। यह एक ऐसी स्वच्छन्दता है जो तमाम आधुनिक विकृतियों से रहित है। महुए की देशी शराब, जिसे स्थानीय आँचलिक भाषा में ‘मऊड़ी ’ कहा जाता है, भी इनके उत्सव का परम्परागत अंग रही है।

            फागुन के रंगों से ओत-प्रोत ये ही वे दिन हैं जब वनवासी अंचलों में जिधर नज़र जाए, उधर विवाहोत्सव के गीत और गुलाल के रंगों की अजस्र धाराएँ प्रवाहित होती रहती हैं। वे तमाम युवक-युवतियाँ, जिनका ’लगन’ लिखा जाता है (सगाई हो जाती है), अपने रिश्तेदारों व मित्रों के साथ विचरण करते हुए एक अद्भुत नज़ारा उपस्थित करते हैं। शरीर पर हल्दी की गाढ़ी पीठी का उबटन लगाये, पुष्पहारों से लदे, वेणी और गजरें लपेटे, परम्परागत परिधानों एवं आभूषणों से सजे हाथ में रंग-बिरंगे रूमाल में लिपटी कटार या तलवार थामे इन युवक-युवतियों को अलग से ही पहचाना जा सकता है।

            सभी परिचित एवं रिश्तेदार हार पहना कर व पान का बीड़़ा खिलाकर इनके वैवाहिक जीवन की मंगलकामनाएँ करते हैं। ढोल-ढमाकों, कोण्डियों, कांसे की थालियों तथा छोटे-छोटे लोकवाद्यों को बजाते-गाते तथा नृत्य करते जब बारातें गुजरती हैं तो चारों ओर आँचलिकता का सागर हिलोरें लेने लगता है। यह दृश्य इतना मनमोहक होता है कि राहगीर तक ठिठक कर इस उत्सव का आनन्द लेने लगते हैं। अक्सर बसों की छत पर ही पूरी बारात दूर से ही नज़र आती है। वनवासियों की विवाह रस्मों में ऐसी कई परम्पराएँ हैं जो लोकानुरंजन के विविध रंगों को सामाजिक जीवन दर्शन से जोड़ती हैं।

            करीब एक डेढ़ माह तक चलने वाले फाल्गुन उत्सव का महामिलन घोटिया आम्बा तीर्थ पर लगने वाले मेले में होता है, जहाँ पूरे मस्ती भरे अंदाज में पुराने वर्ष को विदा कर नये वर्ष के स्वागत का जश्न मनाया जाता है। फाल्गुनी अमावास्या (पूर्णिमान्त पद्धति के अनुसार चैत्र अमावास्या) को मनाया जाने वाले यह घोटिया आम्बा मेला नवविवाहित दम्पतियों का रास क्रीड़ा स्थल भी हुआ करता है, जहाँ प्रणय का उन्माद छलक-छलक कर एक-दूसरे को अपनी रसधारा में डुबोता है। इस दृष्टि से जंगल में मंगल की उक्ति को पूरी तरह घटित होते हुए यहाँ देखा जा सकता है।

            इस वर्ष घोटिया आम्बा मेला 29 मार्च को अपने पूर्ण यौवन पर होगा। दो दिन पूर्व से ही शुरू हो जाने वाला यह मेला पाँच दिनों तक चलता है, जिसमें मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और देश के अन्य हिस्सों से दो लाख से भी अधिक मेलार्थी हिस्सा लेते हैं। महाभारतकाल से ही घोटिया आम्बा वनवासियों का पावन तीर्थ रहा है। कहते हैं अज्ञातवास के दौरान पाण्डवों ने कुछ समय यहाँ गुजारा था और भगवान कृष्ण एवं इन्द्र की सहायता से 88 हजार ऋषियों को विशेष भोज दिया था।

            घोटिया आम्बा तीर्थ मेले के समय प्रणय पर्व एवं मदनोत्सव का केन्द्रीय स्थल बन आदिवासी संस्कृति को पूरी तरह रूपायित एवं झंकृत करता है। सारा वातावरण एक अपूर्व आनन्द में डूब जाता है और वर्ष के बदलने के साथ-साथ शुरुआत होती है ऊर्जा और स्फूर्ति भरे एक नये वर्ष की

– डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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