जिंदगी का सफर
ज़िंदगी का सफर
पिताजी ने हमेशा समझाया कि जब भी यात्रा करो, सामान की सुरक्षा के लिए उसे चैन लगाकर लाक कर दो और चौकस रहो। मैंने हमेशा ऐसा ही करने की आदत डाल ली।
कुछ दिन पहले बस से बनारस गया। बस चलने के कुछ देर बाद ही पाया कि सभी यात्री सो गये हैं। मैंने भी सोना चाहा, परंतु बगल की सीट पर बैठी खूबसूरत लड़की के हावभाव ने सोने नहीं दिया।
मैंने चाहा कि उससे कुछ बात करूँ कि उसने ही मेरा परिचय पूछ लिया, मैंने सहर्ष उसे अपने बारे में सब कुछ बता दिया। कुछ देर बाद वह अपने थर्मस से चाय निकाली और मेरी ओर बढ़ाते हुए मुस्कुराकर बोली- ‘‘प्रदीप जी सफर में अनजान लोगों द्वारा दी गई चीज खानी तो नहीं चाहिए, फिर भी यदि आप उचित समझें तो…।’’
मैंने कहा- ‘‘अब हम अनजान कहाँ हैं ? जिंदगी का सफर अनजान हो तो हो।’’
उसने कहा- ‘‘अरे वाह, आप तो कविता करते हैं।’’
मैंने उसकी दी हुई चाय पी ली।
थोड़ी ही देर बाद मुझे नींद ने घेर लिया। जब आँख खुली, तो मेरे सामान के साथ-साथ कलाई घड़ी और सोने की अंगूठी भी मेरे पास नहीं थी।
अब मैं सोचने लगा, पिताजी की दी हुई सीख अधूरी थी या फिर मैंने उसे पूरी तरह से ग्रहण नहीं किया।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़