कविता

भूतकाल

धीरे-धीरे बहुत से
चेहरे आलोप हो रहे हैं
देखता था जिनको बचपन से।
धीरे-धीरे वो सब आवाज़े
खामोश हो रही है
सुनता था जिनको लड़कपन से।
धीरे-धीरे वो सब
अपने-पराये खोते जा रहें है
मिलता था जिनको बाल्यावस्था से।
धीरे-धीरे वो सब गाँव
शहर में बदलते जा रहे हैं
घूमता था जिनकी पगडंडियों के किनारे।
धीरे-धीरे वो सब मानव
दानव में बदलते जा रहे हैं
समझता था जिनको विश्व का महामानव।

— डॉ. राजीव डोगरा

*डॉ. राजीव डोगरा

भाषा अध्यापक गवर्नमेंट हाई स्कूल, ठाकुरद्वारा कांगड़ा हिमाचल प्रदेश Email- [email protected] M- 9876777233

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