भूतकाल
धीरे-धीरे बहुत से
चेहरे आलोप हो रहे हैं
देखता था जिनको बचपन से।
धीरे-धीरे वो सब आवाज़े
खामोश हो रही है
सुनता था जिनको लड़कपन से।
धीरे-धीरे वो सब
अपने-पराये खोते जा रहें है
मिलता था जिनको बाल्यावस्था से।
धीरे-धीरे वो सब गाँव
शहर में बदलते जा रहे हैं
घूमता था जिनकी पगडंडियों के किनारे।
धीरे-धीरे वो सब मानव
दानव में बदलते जा रहे हैं
समझता था जिनको विश्व का महामानव।
— डॉ. राजीव डोगरा