लघुकथा- भ्रष्टाचार
मोहन रोज घर से कार्यालय तक का लगभग बीस किलोमीटर का सफर बस द्वारा तय करता था । पिछले दो सालों से वह एक ही बस में सफर कर रहा था । यही बस उसे सुबह कार्यालय के लिए शूट भी करती थी। बस का किराया बीस रुपए था । परंतु कंडक्टरों के साथ परिचय होने के कारण और रोज की सवारी होने के कारण वह दस रुपए में काम चला लेता था।
आज जब वह बस में चढ़ा तो कंडक्टर नया था । बस कंडक्टर ने मोहन से बीस रुपए मांगे तो मोहन को कुछ अटपटा लगा ।उसने कहा -“भाई साहब मैं रोज दस रुपए में सफर करता हूं। पिछले दो साल से इसी बस में आता जाता हूं।” कंडक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा-” सर बीस रुपए ही लगेंगे।”
बीस रुपए सुनते ही मोहन का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उसने जेब से बीस रुपए निकालकर कंडक्टर को थमा दिए। कंडक्टर ने पैसे थैले में डाले और दूसरी टिकटें काटने में लग गया । उसने उसे टिकट नहीं दिया । मोहन ने साथ बैठी सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झड़ना शुरू कर दिया।
थोड़ी देर बाद जब कंडक्टर टिकट काटकर वापस आया तो उसने उसे बड़े रौब से कहा-“भाई पैसे तो बीस रुपए ले लिए टिकट भी दे दो ।”
मोहन के चेहरे पर आए हुए गुस्से को भांपते हुए कंडक्टर ने टिकट की जगह दस रुपए मोहन के हाथ पर रख दिए। मोहन के चेहरे का रंग एकदम बदल गया ।
थोड़ी देर पहले जो साथ वाली सवारी के साथ देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भाषण झाड़ रहा था ,अब उसके भाषण का टॉपिक बदल गया था ।
— अशोक दर्द
एक दम समसामयिक यथार्थवादी रचना।