लघुकथा

सुखाश्रम

होली के दिन सुबह-सुबह गीत बजने लगे- “होली खेलें रघुवीरा…” “होली के दिन दिल खिल जाते हैं…” और “रंग बरसे…”. सभी महिलाएं हैरान थीं. विधवाश्रम में ऐसे होली गीत!
तभी माइक पर घोषणा हुई- “सभी महिलाओं से अनुरोध है कि जल्दी से ब्रेकफास्ट के लिए आ जाएं, उसके बाद धूमधड़ाके से होली खेली जाएगी!” सब एक-दूसरे का मुंहं देखने लगीं!
“हमारे साथ ऐसा मजाक क्यों हो रहा है?” डाइनिंग हॉल में एक बुजुर्ग महिला ने वार्डन से पूछ ही लिया!
“मजाक नहीं है,” नये मैनेजर ने आते हुए उसकी बात सुन ली थी- “पति चले गए तो आप लोगों का क्या दोष है !”
“लेकिन…” महिला कुछ कहना चाहती थी.
“यही न कि लोग क्या कहेंगे? अभी कौन-सा आपके साथ अच्छा व्यवहार हो रहा है? अब से आप सब रंगबिरंगे कपड़े पहनेंगी.”
“रंग बरसे…” गीत के बजते ही सब महिलाएं झूमने-नाचने लगीं. विधवाश्रम “सुखाश्रम” का रूप ले चुका था.

— लीला तिवानी

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

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