होली क्यों मनााई जाती है?
कल दिनांक 12 मार्च 2025 को प्राचार्य कक्ष में कार्यालयीन कामों के अन्तर्गत विभिन्न कक्षाओं की माॅनीटर डायरियों पर हस्ताक्षर कर रहा था। उसी समय एक कक्षा की माॅनीटर अपनी डायरी पर हस्ताक्षर कराने के बाद बोली, ‘सर! एक प्रश्न पूछूँ?’
हाँ! हाँ क्यों नहीं बेटा पूछो। तुम लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने के लिए ही तो यहाँ बैठा हुआ हूँ।’ मैंने उसे प्रश्न पूछने के लिए प्रोत्साहित करने का प्रयास किया।
‘सर! हम होली क्यों मनाते हैं?’ उस बच्ची ने पूछा।
मैं इस प्रकार के प्रश्न के लिए तैयार नहीं था। अतः स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि इस विषय में अधिक मैं भी नहीं जानता। अधिकांश त्यौहारों को हम परंपरा के रूप में मनाते हैं। परंपराएँ हमें अपने लोगों अर्थात समुदाय से जोड़ती हैं। मानव एक सामाजिक प्राणी है। अतः समुदाय की भावना के अनुरूप हमें भी समुदाय के साथ त्यौहारों में सम्मिलित होना चाहिए। होली का संदेश यह है कि बुराई पर अच्छाई की जीत होती है। बुराई को जलना ही पड़ता है। बच्ची तो संतुष्ट होकर चली गई, किंतु मुझे स्वयं ही उस उत्तर से संतुष्टि नहीं मिली। मेरे मस्तिष्क में उस प्रश्न पर चिंतन और मनन चलता रहा।
होली क्यों मनाते हैं? इस प्रश्न का उत्तर वैश्विक अन्तर्जाल पर खोजा तो कई प्रकार के विचार निकल कर आए। जिसमें से एक में होली को राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक बताया गया था। लिखा था कि राधा कृष्ण के प्रेम का प्रतीक मानी जाने वाली होली की शुरूआत बरसाने में हुई थी। कहा जाता है कि राधा और कृष्ण बचपन में अपने मित्रों के साथ मिलकर विभिन्न रंगों से खेलते थे। यह खेल उनके प्रेम और स्नेह का प्रतीक था, जो आज भी होली के रूप में मनाया जाता है। बचपन के खेल को इस प्रकार उत्सव के रूप में मनाने की बात के साथ ही मुझे स्वामी विवेकानन्द के तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर उनके विचार स्मरण हुए कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। इसी प्रकार होली के लिए भी बचपन के खेल का तर्क पर्याप्त व उचित नहीं लगा।
अगले विचार में होली मनाने के पीछे एक कहानी उभर कर आई। हिरण्यकश्यपु नाम का एक असुर राजा था। वह समाज के हितेषी सज्जन व साधुओं पर अत्याचार करता था। उन्हें मार डालता था। उसी क्रम में उसने अपने बेटे को मारने की कई कोशिशें कीं। कहा जाता है कि भगवान की कृपा से वह हर बार बच जाता था। हिरण्यकश्यपु के कहने पर उसकी बहिन होलिका प्रह्लाद को गोद में उठाकर आग में प्रवेश कर गई। माना यह जाता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। ईश्वर की कृपा से प्रह्लाद बच गया और होलिका जल गई। तार्किक रूप से यह कहा जा सकता है कि होलिका के पास कोई ऐसी तरकीब थी कि वह अपने आपको आग में जलने से बचा लेती थी, किंतु प्रह्लाद के समर्थकों ने उसको ऐसे लेप से पोत दिया कि आग उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाई और उसमें होलिका ही जल गई। तभी से बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक के रूप में होली का दहन कर होली मनाई जाती है। कालांतर में यह रंगों के त्यौहार के रूप में प्रसिद्ध हो गया। कई स्थानों पर प्रह्लाद के प्रतीक के रूप में व्यक्ति जलती हुई आग में होकर अभी भी निकलता है।
कहा यह भी जाता है कि भगवान श्री कृष्ण ने पूतना का वध फाल्गुन माह की पूर्णिमा के दिन किया था। तब से होली मनाई जाने लगी। माना यह भी जाता है कि शिव-पार्वती और कामदेव की कथा को भी होली से जोड़कर देखा जाता है। यही नहीं होली को राक्षसी धुंधी से भी जोड़ा जाता है कि यह राक्षसी बच्चों को खाती थी। कोई उसका वध नहीं कर पाता था। इसलिए फाल्गुन माह की पूर्णिमा पर बच्चों ने आग जलाई और राक्षसी पर कीचड़ फेंकते हुए शोर मचाया, इससे राक्षसी नगर छोड़कर भाग खड़ी हुई। माना जाता है कि तब से ही होलिका दहन और धूलिवंदन करने की परंपरा की शुरूआत हो गई। इसके साथ ही अन्य विचार भी मिले। होली वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक भी है। होली नई शुरूआत का प्रतीक भी मानी जाती है। जो पुरानी बातों को भुलाकर नए उत्साह के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है। इस दिन अपने पुराने गिले-शिकवों को भुलाकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं, गले मिलकर मेल-जोल बढ़ाते हुए आपस में प्रेम बढ़ाने के प्रयत्न करते हुए अपने समाज को मजबूत करने के प्रयत्न भी किए जाते हैं। इस प्रकार होली बुराई पर अच्छाई की जीत, वसंत ऋतु के आगमन और आपसी प्रेम और मेलजोल बढ़ाने का त्यौहार है; जिसे विभिन्न रंग बिखेरते हुए खुशियों के साथ मनाया जाता है।
प्रश्न का उत्तर केवल होली की मान्यताओं से ही पूरा नहीं हो जाता। प्रश्न यह भी है कि हम किसी भी त्योहार को क्यों मनाते हैं? परंपराओं को क्यों निभाते हैं? क्या रीति-रिवाज उसी रूप में चलते रहना उचित है? इन सब प्रश्नों के उत्तरों पर सर्व सम्मति बन पाना तो लगभग असंभव ही है किंतु उसके बावजूद विचार-विमर्श और चिंतन-मनन तो किया ही जा सकता है। परंपरा एक पगडंडी के समान होती है। पहले से चल रहे रास्ते की तरह नई राहों के निमार्ण के लिए साहस, खतरे उठाने की क्षमता और परिश्रम की आवश्यकता पड़ती है। पुरानी राहों पर चलने में आसानी होती है। अतः परंपराओं का निर्वाह करने में सामान्यजन सुविधा महसूस करते हैं। रीति-रिवाज हमें हमारी प्राचीनता से जोड़ते हैं। इनके द्वारा हम अपने जीवन मूल्यों को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का कार्य भी करते हैं।
भारत में कहावत है, ‘सात वार और नौ त्यौहार।’ त्यौहार और उत्सव हमारी समृद्धि का प्रतीक भी कहे जा सकते हैं। गरीबी में तो उत्सव मनाए नहीं जा सकते। गरीब के लिए तो त्यौहार हीनता का बोध ही कराते हैं। अतः भारत में त्यौहार और उत्सवों की लंबी परंपरा भारत की प्राचीन समृद्धि की भी याद दिलाती है। सामुदायिक उत्सव मनाना समुदाय को मजबूत बनाते हुए आपसी भाई-चारे को मजबूत करता है। हाँ! यह स्मरण रखना आवश्यक है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अतः परंपराओं में भी समय के साथ आवश्यक परिवर्तन स्वीकार करना होगा अन्यथा रीतियाँ कालांतर में कुरीतियाँ बन जाती हैं। होलिका दहन के लिए प्रारंभ में अनावश्यक वस्तुओं, पुराने सामानों, कुड़े-कचरे का प्रयोग किया जाता था, जो साफ-सफाई कर देता था किंतु वर्तमान में चंदा इकट्ठा करके नई लकड़ी खरीदी जाती हैं; जो पेड़ों को काटकर आती हैं। इस प्रकार होलिका दहन पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाली परंपरा बनती जा रही है। इसी प्रकार कैमीकल वाले रंगों का प्रयोग भी त्वचा को हानि पहुँचाता है और अन्य विभिन्न प्रकार के रोगों को बढ़ाते हैं। अतः इसमें सुधार करने की आवश्यकता है। परंपरा के रूप में ही सही किंतु त्यौहार मनाते समय हम खुशियाँ मनाते हुए वर्तमान चिंताओं और तनावों से मुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार ये हमारे लिए उपयोगी हैं किंतु हमें यह ध्यान रखने की आवश्यकता है कि केवल परंपरा का निर्वाह करके कहीं हम अपने आपको और अपने पर्यावरण को हानि तो नहीं पहुँचा रहे। इसी के साथ विवेकपूर्ण तरीके से अपने, समुदास और पर्यावरण के हितों का संरक्षण करते हुए होली मनाने के आह्वान के साथ सभी को होली की शुभकामनाएँ।