कविता

बेसुध जवानी

मनुष्यों की एक उम्र है..
जवानी
जो अल्प समय के लिए आता हैं
फिर चले जाता हैं
ये समय है कदम जमाने का
नाम कमाने का
कुसुम सरिस महक बगराने का
किंतु मनुज इसे अकारथ गँवा देते हैं
नशे में धुत होकर
कोई प्रेम में बेसुध होकर
सही सदुपयोग नही कर पाता
चिंता घुटन में बेर निकालता
जबकि इस समय माता-पिता को
आशा होती है
सूत कुछ करे
दीप सरिस जगमग बरे
पर वो चुन लेता है.. अंधेरा को
तजकर सबेरा को ।
होकर गुमनाम
आपा, श्वास खोती… विराम! विराम!

— चन्द्रकांत खुंटे ‘क्रांति’

चन्द्रकांत खुंटे 'क्रांति'

जांजगीर-चाम्पा (छत्तीसगढ़)

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