हास्य व्यंग्य

एक पौधे की व्यथा

कोई मुझे बाहर निकालो, भाई! चार दिन से कार की पिछली डिक्की में पड़ा हूँ। मालिक भूल गए क्या? नर्सरी से मुझे ऐसे लेकर आए थे जैसे अनाथाश्रम से बच्चा गोद लिया हो । पचास मेरे भाई-बहनों में से मुझे चुना, मैं तो उसी समय घबरा गया था। मेरे वश में होता तो वहाँ से भाग खड़ा होता। मुझे मालूम है, पिछले साल भी तुम्हें वृक्षारोपण का भूत चढ़ा था। मेरे एक भाई को ले गए थे, उसके साथ तुमने क्या किया, यह मुझे पता है। जैसे ही तुम जैसे किसी पर्यावरण प्रेमी की गाड़ी नर्सरी के गेट पर ठहरती है, नर्सरी में एकदम सन्नाटा छा जाता है! तुम्हारे लिए यह पौधारोपण या वृक्षारोपण कार्यक्रम होगा, हमारे लिए तो बकरीद जैसा ही है। शहादत तो हमें ही देनी है न! तुम्हारी समाज सेवा की बलि वेदी पर हमारी ही बली चढ़नी है!

अच्छा-भला नर्सरी में फल-फूल रहा था, माली समय पर पानी दे रहा था, खाद दे रहा था, सूरज की तपिश मिल रही थी। वहाँ की गरीब कुटिया में भी स्वछंद अपना बचपन बिता रहा था। लेकिन तुम लोगों को न जाने क्या समाज सेवा की भूख चढ़ी है! अरे! समाज सेवा करनी है तो समाज की करो न! क्यों इस पर्यावरण सेवा और वृक्षारोपण के कीड़े ने हमारी जिंदगी बर्बाद कर रखी है? चार दिन से कार की डिक्की में पड़ा हूँ, दम घुट रहा है। अगर कार्यक्रम हरियाली तीज को ही रखना था, तो तब ही लेकर आते ना! कुछ दिन तो आराम से और जी लेता। अरे! फाँसी पर चढ़ने वाले मुजरिम से उसकी आखिरी इच्छा पूछी जाती है। हलाल होने वाले बकरों को भी हलाल करने से पहले अच्छी तरह खिलाया-पिलाया जाता है, मुझे तो वह भी नसीब नहीं।

मुझे मालूम है, मेरे साथ क्या होने वाला है। सोच-सोचकर ही रूह काँप जाती है। यहाँ कोई है भी नहीं जिससे बात करूँ, अपना दुख-दर्द साझा करूँ। तुझे तो मेरा नाम भी मालूम नहीं! माली से डींगें हाँक रहा था कि हम पौधे खरीदते नहीं, गोद लेते हैं। गोद लेते हैं तो क्या नाम भी नहीं पूछते? किसका पेड़ है? चार दिन से चार बार तो अपने बच्चों को मुझे दिखा चुका है, उनका बॉटनी का ज्ञान मुझसे ही बढ़वाएगा! कोई मेरी पत्ती तोड़कर देख रहा है, कोई डाली तोड़कर, कोई मेरे जाइलम-फ्लोएम की जाँच कर रहा है। तुम्हारी नजर में तो सब पौधे एक जैसे हैं, तुम्हारी नजर में तो सब पौधे केवल पौधारोपण कार्यक्रम के काम आते हैं। जैसे मैं पौधा नहीं, आम आदमी हो गया हूँ, जो सिर्फ वोट देने के काम आता है!

तुम्हें तो बस पौधारोपण से मतलब है, चाहे मैं आम का हूँ या बबूल का, तुम्हें क्या फर्क पड़ता है! तुम तो बबूल को भी आम बताकर रोपित कर दोगे। पौधारोपण के समय फोटो खींचोगे, उसमें मैं तो कहीं दिखूंगा ही नहीं। तुम्हारी संस्था के दस आदमी मुझे यहाँ-वहाँ से ऐसी बेरहमी से पकड़ेंगे, जैसे कि बकरे को हलाल करने से पहले पकड़ा जाता है। मेरी नाजुक सी डाली पर अपनी संस्था की भारी-भरकम प्लेट टांग दोगे। अरे! कम से कम मैं शहीद हो रहा हूँ तो इतना हक तो बनता है कि मेरी भी फोटो अखबार में छपे! हेडलाइन में भी मेरा नाम सिर्फ आम आदमी की तरह संख्याओं में होगा – संस्था ने ५१ पौधे लगाए किसके लगाए? इससे न संस्था को मतलब होगा, न पाठकों को।

जहाँ मुझे लगाया जाएगा, वह जगह भी तुम्हारी निजी संपत्ति होगी। वहाँ तुम्हारे प्रतिष्ठान का बड़ा-सा होर्डिंग पहले से टंगा होगा। वही जगह होगी, जहाँ पिछली बार तुमने मेरे भाइयों को शहीद किया था! अरे! हिम्मत है तो यह हेडलाइन दो न –
संस्था द्वारा आज के वृक्षारोपण कार्यक्रम में 10 पौधों को किया शहीद।

मैं जानता हूँ, तुम्हारे पौधारोपण की हकीकत। तुम दिहाड़ी मजदूर बुला लोगे। वही गड्ढा खोदेगा, वही पानी देगा, वही मुझे रोपेगा। भूखा-प्यासा, अपनी चार पसीने की बूंदें भी मुझे अर्पित कर देगा। जब तक तुम संस्था के ऑफिस में वृक्षारोपण संगोष्ठी में पर्यावरण संरक्षण पर लंबा-चौड़ा भाषण दोगे, मंच, माला, माइक से सरोबार होकर 10-15 फोटो खिंचवाकर चाय-नाश्ते से पेट भरोगे, तब तक वह मजदूर बेचारा अपनी मजदूरी की राह देखता रहेगा। किसी पेड़ की छाँव में सुस्ताता रहेगा, एक बीड़ी सुलगाएगा।

तुम पेड़ लगाते क्यों हो, जब तुम्हें न तो इसकी छाँव की जरूरत है, न इसके फलों की? फिर तुम सब आओगे, मुझे चारों तरफ से घेरकर दो-चार फोटो खिंचवाओगे, फिर ऐसे गायब हो जाओगे जैसे नेताजी चुनाव के बाद! उसके बाद निरीह सा मैं, पानी और खाद के लिए तरसता रहूँगा। कहीं बरसात ने थोड़े दिन के लिए मेहरबानी कर दी और मुझे जीवित रखा, तो वह भी तुम्हें सहन नहीं होगा। तुम्हारा लगाया गया ट्री-गार्ड कोई गंजेड़ी उखाड़कर उसे कबाड़ी बाजार में बेचकर अपनी शाम का जुगाड़  कर लेगा ! फिर आवारा, भूखी-प्यासी गायें, बकरियाँ और भेड़ें मुझ पर छोड़ दी जाएँगी। मेरे साथ सार्वजनिक बलात्कार होगा! धीरे-धीरे गरीब की झुग्गी-झोंपड़ी में पले बच्चे की तरह सूखकर काँटा बन जाऊँगा और एक दिन मिट्टी में मिल जाऊँगा।

मेरी शहादत किसी भी अखबार में नहीं छपेगी। लेकिन तुम एक बार फिर पर्यावरण प्रेमी कहलाओगे, दो-चार तमगे अपनी शर्ट पर लगवा लोगे। मैं ज़मीन में मिलकर तुम्हारे अगले साल के पौधारोपण कार्यक्रम के लिए फिर ज़मीन तैयार कर दूँगा!” बस यही मेरी नियति है!

— डॉ. मुकेश ‘असीमित’

डॉ. मुकेश 'असीमित'

पता -डॉ मुकेश गर्ग गर्ग हॉस्पिटल ,स्टेशन रोड गंगापुर सिटी राजस्थान पिन कॉड ३२२२०१ पेशा: अस्थि एवं जोड़ रोग विशेषज्ञ लेखन रुचि: कविताएं, संस्मरण, लेख, व्यंग्य और हास्य रचनाएं प्रकाशित पुस्तक "नरेंद्र मोदी का निर्माण: चायवाला से चौकीदार तक" (किताबगंज प्रकाशन से ) "गिरने में क्या हर्ज है " -(५१ व्यंग्य रचनाओं का संग्रह ) भावना प्रकाशन से काव्य कुम्भ (साझा संकलन ) नीलम पब्लिकेशन से काव्य ग्रन्थ भाग प्रथम (साझा संकलन ) लायंस पब्लिकेशन से प्रकाशनाधीन -व्यंग्य चालीसा (साझा संकलन ) किताबगंज प्रकाशन से देश विदेश के जाने माने दैनिकी,साप्ताहिक पत्र और साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित रूप से लेख प्रकाशित सम्मान एवं पुरस्कार -स्टेट आई एम ए द्वारा प्रेसिडेंशियल एप्रिसिएशन अवार्ड