कविता

धरा पावन

मन में भ्रम की धारणा बनाए बैठे हैं कि
स्थान विशेष की धरा होती है पावन,
तब एक परिपाटी निकल पड़ती है और
लोग पहुंचते हैं जान जगह मनभावन,
पृथ्वी के किसी जगह को हम
पावन अपावन के रूप में नहीं बांट सकते,
हर स्थल से निकल सकते हैं
महामानव,महापुरुष खास जगह नहीं छांट सकते,
खेल प्रकृति के निराले हैं
कहीं भी चमत्कार दिखा सकते हैं,
वो प्रकृति ही है जो
शोलों को वातावरण में दौड़ा सकते हैं,
कुदरत के इसी खेल को कुछ लोग
चमत्कार या दैवीय शक्ति बताते हैं,
अपनी चतुरता या धूर्तता दिखा
मानसिक जाल बिछा भक्ति कराते हैं,
किसी के जन्मस्थली को,
तो किसी के कर्मस्थली को,
कहने लगते हैं पावन भूल हिय मर्मस्थली को,
आज का युग पूरी तरह विज्ञान का है,
पर्यावरण के सम्मान का है,
न पड़ो किसी झंझट में मानव
पूरा का पूरा समय ज्ञान का है।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554