यादों का पिटारा
बहुत कीमती सामान था मेरा
उस यादों के पिटारे में
भुलाना तो बहुत चाहा
पर वक़्त ने भूलने न दिया
मैं मानती रही सभी को अपना
चलती रही धूप से तपती रेत पर
पांव में छाले अनगिनत मिले
पर किसी ने हौसला न दिया
झुकती रही हर पल हर क्षण
रिश्तों को निभाती रही हँसकर
आदत में शामिल था सहन करना
ईमान को कभी डिगने न दिया
खुशनसीबी थी जैसे कोई सपना
किस्मत का हर लफ्ज था वंदना
उम्मीदों को ताउम्र सहेजती रही
पर खुद को कभी टूटने न दिया
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़