आया बुढापा, हाय जवानी!
‘साठा सो पाठा’ यह कहावत बहुत पुरानी है। एक समय था जब यह कहावत सत्य होती थी, क्योंकि इस उम्र में लोग नाती-पोतों वाले होकर अपने सभी कार्य अपनी सन्तानों को सौंप देते थे और पूर्णतः चिन्तामुक्त होकर स्वस्थ जीवन जीते थे, जिससे वे देखने में भी अपनी उम्र से कम लगते थे। लेकिन अब यह बात नहीं रही। आज के युग में लोग प्रायः 60 वर्ष की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते बहुत निर्बल हो जाते हैं और देखने में अपनी उम्र से बहुत अधिक लगते हैं। उदाहरण के लिए, सरकारी या प्राइवेट नौकरी करने वाले लोग रिटायर होने की उम्र तक अपनी सारी ऊर्जा खो चुके होते हैं। कहने के लिए उनके पास सुख-सुविधा का सब कुछ होता है- बैंक बैलेंस, मकान, कार, परिवार, मित्र आदि। परन्तु जो सबसे महत्वपूर्ण है- ‘पहला सुख निरोगी काया’, वही शरीर उनका साथ नहीं देता। रिटायर होने तक वे मोटापा, शुगर, बीपी, जोड़ों के दर्द आदि अनेक शारीरिक समस्याओं से पीड़ित हो जाते हैं और इनके लिए दवाइयाँ खाते-खाते बची-खुची जिन्दगी गुजार देते हैं।
उनकी इस दुर्दशा का कारण यह है कि उन्होंने अपनी जवानी के दिनों में अपने स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं दिया होता। जीभ के स्वाद के वशीभूत होकर वे पार्टियों और होटलों में मनमाना खाते-पीते रहते थे, परन्तु उसको पचाने के लिए कोई शारीरिक श्रम या व्यायाम आदि नहीं करते थे, योग करना तो दूर की बात है। मेरे अधिकांश मित्रों, भाई-बहिनों, रिश्तेदारों आदि जो सभी साठोत्तरी वय के हैं, उनका यही हाल है। इसमें अपवाद केवल वे लोग हैं जो या तो नियमित व्यायाम करते रहे हैं या शाखा जाते रहे हैं। वे लोग 70-80 साल की सीमा में पहुँचने के बाद भी सक्रिय हैं और अपेक्षाकृत बहुत स्वस्थ हैं।
स्वास्थ्य और व्यायाम की उपेक्षा करने वाले लोगों ने कभी अपने बुढ़ापे की चिन्ता नहीं की होती कि शारीरिक रूप से अस्वस्थ हो जाने पर वे किस प्रकार कष्ट भोगेंगे। यदि उन्होंने इस पर विचार किया होता, तो उन्हें शायद कष्ट न झेलना पड़ता। अधिक नहीं तो वे कम से कम 2-3 किलोमीटर प्रतिदिन टहल ही सकते थे, जिससे उनका कुछ शारीरिक व्यायाम हो जाता, परन्तु नहीं। घर-घर में उपलब्ध बाइक और कार के कारण उनको कभी पैदल नहीं चलना पड़ा। थोड़ी दूर बाजार से सब्जी या दूध लेने जाने के लिए भी वे वाहन का उपयोग करते हैं, जिससे उनके पैदल चलने का स्वर्णिम अवसर खो जाता है और उसकी सम्भावना भी समाप्त हो जाती है।
इसलिए मैं कहता हूँ कि उनकी सबसे बड़ी बीमारी है- कार। इस कार के कारण ही वे पैदल चलने मेें शर्माते हैं और धीरे-धीरे उनकी पैदल चलने की क्षमता भी समाप्त हो जाती है। दूसरे शब्दों में सकार होते ही, वे बेकार होने लगते हैं और अन्ततः वाहनों पर ही निर्भर होकर रह जाते हैं। ऐसी गलत जीवन शैली का परिणाम केवल बुढ़ापे में ही नहीं, बल्कि घोर जवानी के दिनों में भी भुगतना पड़ता है। बहुत से लोग किशोरावस्था और जवानी में ही बी.पी., शुगर और हृदय रोग तक से पीड़ित हो जाते हैं। मोटापा तो एक आम समस्या है। मनमाना खान-पान और शारीरिक श्रम की कमी इनका प्रमुख कारण है।
ऐसे में जब कोई स्वास्थ्य के प्रति जागरूक वरिष्ठ नागरिक दिखाई देता है, तो सुखद अनुभूति होती है। एक बार पुणे में मैं सुबह 8.30 बजे एक दक्षिण भारतीय रेस्तरां में इडली-साँबर खाने गया था। वहाँ सेल्फ सर्विस है। अपनी प्लेट लेकर मैं बैठने के लिए स्थान देख रहा था, तो एक मेज पर मैंने दो वरिष्ठ नागरिकों को बैठे देखा। उनके पास की दो सीटें खाली थीं। मैं उधर बढ़ा तो उन्होंने अपने पास बैठने के लिए इशारा कर दिया। वहाँ बैठकर खाते-खाते मैंने उन दोनों को ध्यान से देखा, तो हाव-भाव और वेषभूषा से वे मुझे एथलीट लगे। मैंने उनसे पूछा कि ‘क्या आप जॉगिंग करते हैं?’ तो उनमें से एक ने बताया कि ‘हम साइकिलिंग करते हैं।’ मैंने पूछा- ‘कितने किलोमीटर?’ तो उन्होंने कहा- ‘रोज तो 20-25 किमी करते हैं, पर आज 15 किमी की है।’ मुझे यह जानकर बहुत अच्छा लगा। स्वास्थ्य के प्रति ऐसी जागरूकता प्रशंसनीय और अभिनन्दनीय है। यदि ऐसी जागरूकता सभी वरिष्ठ नागरिकों में हो, तो उनको वृद्धावस्था के कष्टों को नहीं झेलना पड़ेगा।
— डॉ. विजय कुमार सिंघल
चैत्र कृ. ९, सं. २०८१ वि. (२३ मार्च, २०२५)