हमारा पड़ोसी
पड़ोसी देश दिनों- दिन
खूब तरक्की कर रहा है
आपस में ही सारा हिसाब किताब
सफलतापूर्वक नक्की कर रहा है।
सत्तर सालों से, नफरत के बीज
जो बड़ी शिद्दत से बोए थे
अब खुद पर ही,भारी पड़ रहे हैं
जो ख़ून के रंग से संजोए थे।।
अपनी ही सरकार के खिलाफ
लोग अब विद्रोह पर,उतर आए हैं
एक राज्य की सेना के लोग
बग़ावत की अलख जगाए हैं।।
आर्थिक व्यवस्था छिन्न भिन्न है
बस धर्म कूट कूट, कर भर रखा है
कोई भी मदद को, तैयार नही है
एक कश्मीर का रट लगा रखा है।
प्रगति, विज्ञान, शिक्षा, उद्योग
हर क्षेत्र में ही, पिछड़ गया है
खेलों में भी अब मात खा रहा है
सफल नही हो रहा है कोई प्रयोग
लोकतंत्र तो पहले से ही कमोबेश
दम तोड़ चुका है
विश्व में भी साख, कमजोर हुई है
मित्र देशों के सम्मुख, सर झुका है
पड़ोसी होने के नाते हमें
उसकी बहुत अधिक चिन्ता है
लेकिन क्या करें कर्म ही ऐसे हैं
ऐसे पड़ोसी पर हम शर्मिंदा हैं।।
वैसे जो हो रहा है, ठीक ही है
जिद्दी है वह बड़ा घमंडी है
तरक्की से कुछ लेना देना नही
कुछ कम अक्ला एवं उद्यंडी है।
— नवल अग्रवाल