चक्रव्यूह
जागृत है सारे सहोदर,
दिमाग में भरा है पूरा गोबर,
रहते रचते रात दिन वक्रव्यूह,
बड़े शान से कह रहे उसे चक्रव्यूह,
माना कि चक्रव्यूह भेदना
सबके बस की बात नहीं,
पर कैसे कहें कि रचने वाला
खुद भी है पूरा सही सही,
करना नवनिर्माण जायज है,
पर विध्वंसक रचना नाजायज है,
खुद का बनाया हथियार
हो सकता है खुद के लिए घातक,
असलहा धरे रह जाते हैं जब
सामने आती दिमागी ताकत,
दिमाग होता झुंड बराबर
नहीं अकेली टूटती लकड़ी,
अपने बनाये शानदार जाल में
फंस मर जाती है एक दिन मकड़ी।
— राजेन्द्र लाहिरी