उसकी आंखों में लाली चमक रही थी
और ये भी सच है कि मुहब्बत की आंखें नहीं हुआ करती है।मुहब्बत जब हो जाती है तो इंसानी वजूद पर दिल दिमाग़ से आगे निकल जाता है ।अंजली बेहद हसीन और दानिशमंद थी।मै रफ़्ता रफ़ता अंजली की मुहब्बत में गिरफ़्तार होता चला गया ।और वो भी मुझको अपना समझने लगी।
अंजली और शामली इस वाक़्ये को कई वर्ष गुज़र चुके हैं। लेकिन मैं आज भी शामली को नहीं भुला पाया हुं।रही बात अंजली की तो वो मेरे कॉलेज में मेरे साथ ही पढ़ाई कर रही थी ।और मेरी बडी़अच्छी दोस्त भी वही थी ।आप समझ सकते हैं कि दोस्तीऔर मुहब्बत के बीच कितना फ़ासला होता है ।दोस्ती को मुहब्बत की आग आख़िकार पिघला ही देती है।और दोस्ती मुहब्बत में तब्दील हो कर रहती है ।और ये भी सच है कि मुहब्बत की आंखें नही हुआ करती है ।मुहब्बत जब हो जाती है तो इंसानी वजूद पर दिल दिमाग़ से आगे निकल जाता है ।अंजली बेहद हसीन और दानिशमंद थी।मै रफ़्ता रफ़ता अंजली की मुहब्बत में गिरफ़्तार होता चला गया ।और वो भी मुझको अपना समझने लगी ।और फ़िर जि़दगी का साथ निभाने की कसमें हमने खाई।मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही चला गया ।और फिर उन दिनों मेरी एक कहानी मैगजी़न मे शाया हुई तो उसको पढ़कर अंजली की नाराज़गी सामने आई ।वजह देखिए अफ़साने के किरदार जिसे एक कॉलेज की लड़की जिसको मैने एक क्रेरेकटर बना कर पेश किया था दुसरा किरदार मैने खुद अपने आप को लेकर लिखा था ।जिसको लेकर बदगुमानी अंजली दिखा रही थी ।मैने इस मुत्तालिक़ बात जब भी करना चाही अंजली ने इम्तिहान की मसरूफ़ियत बता कर बात को टाल दिया इम्तिहान भी हो गए कॉलेज भी बंद हो गये ।अंजली अपने घर लौट गयी ।मैंने बहुत कोशिसें की अंजली से मिलकर मैटर को हल किया जाये मगर शायद खुदा को भी यही मंजूर था तो मेंने भी इसी में अपनी खुशी समझकर अपना रास्ता लिया और मै भी अपने घर आ गया।और अपने आप को अल्फ़ाजों की दुनिया में मशगूल कर दिया।मन तो नहीं लग रहा था कहीं न कहीं अंजली का ख़्याल भीथा।एक रोज़ मैं अपना मुख्तसर सा सामान लेकर घर से दूर मेहरा गांव के डॉकबंगले आ गया।वहां कुछ दिन रहकर मैने आराम भी किया और लिखने के काम को भी अंजाम देता रहा।
यहां डाक बंगले की ऊंचाई से मेहरा गांव का मंज़र काफ़ी दिलकश नज़र आता था। सो मैं ने एक रोज़ डॉकबंगले क चपरासी जोे वहां की जिम्मेदारी देखता था उससे कहा कि हमे गांव की सैर कराओ। वो मान गया फ़िर एक रोज़ शाम को हम पगडंडी से होकर नीचे गांव की तरफ़ चल दिए। जहां चौकीदार हरिराम ने मुझे एक चारपाई पर बैठ जाने का ईशारा किया । और वहीं वो अंदर एक झोंपड़ी के भीतर चला गया ।वापसी में आया तो एक बुजु़र्ग शख़्स भी साथ था।कुछ देर ईधर उधर की बात के साथ मेरे बारे मे हरिराम ने बताया और बताया कि दादा पहले मेरी जगह यहीं काम करते थे । फ़िर मेंने देखा कि एक पहाड़ी खु़बसुरत दोशीज़ा चाय लेकर वहां नमुदार हुई । जिसे देखकर लगा कि सुंदरता तो सिर्फ़ यही है ।मेरे हाथ पैरों मे बिजली सी दौड़ गयी। हम वापस डाक बंगले मे आगये थे। लेकिन मेरा दिल वहीं रह गया था । फ़िर हुआ यूं कि कुछ दिनों बाद हरिराम कहीं बाहर चला गया था। उसे कहीं कुछ ज़रूरी काम दरपेश आगया था।और मेरा खाना वो लड़की अपने दादा के साथ आकर बनाकर चली जाया करती थी। एक हफ़ते तक हरिराम नहीं लौटा इस दौरान वो लड़की और दादा बराबर आते रहे। लड़की ने अपना नाम शामली बताया था। एक हफ्ते में शामली मुझसे ऐसे घुल मिल गई मानो वो मुझे वर्षों से पहचानती हो।शामली बहुत ही खुश मिजाज़ किस्म की लड़की थी। बाते तो वो बहुत करती थी। मुझे उसको देखना उससे बातें करना बड़ा ही अच्छा लगता था। इसको देखने मेरे दिल को बड़ा सुकुन मिलता था।
इन दिनों में लिखता कम उसी के बारे में सोचता रहता था।इसी बीच मैं मैं तीन चार दफ़ा शामली के साथ उसके घर भी हो कर आया था ।शामली मुझसे बहुत बातें करती माने मेरा उसका तॉल्लुक़ नया न होकर काफ़ी पुराना हो वो मुझको एक दो बार पास की नदी की तरफ़ भी लेकर गयी जहां का मंजर दिल को बहुत अच्छा सा लगा मैने उससे रज़ामंदी लेकर उसकी तस्वीरें भी निकाली मैं शामली में दिलचश्पी लेने लगा था।और शायद वो भी मेरे इंतज़ार में रहने लगी थी।मैंअब उसी के ख्याल में डूबता जा रहा था । और फ़िर एक रोज़ हरिराम वापस लोट आया था। मेंने पूछा कब आये तो उसने सपाट सा जवाब दिया कल आ गया था। उसकी बेरुखी साफ़ जाहिर थी।मुझे उसका लहज़ा समझ में आ गया कि कहीं न कहीं कोई नाराज़गी ज़रूर है। पूछने पर उसने वजह बताई साहब आप और शामली कहां कहां घूमने गए थे कह कर वो खामोश होगया। कुछ देर के लिए सन्नाटा सा पर गया था। उसने कहा शामली ने मुझे सब बता दिया है साहब।लेकिन हरिराम बात क्या है कुछ तो तो बताओ। शामली ने क्या बताया मैं खामोश था। वो भी खामोशी से काम करता रहा। वोउखे कुछ उखड़ा उखड़ा सा लग रहा था ।फि़र उसके बाद शामली नज़र नहीं आई। मैं बेचैन सा बंगले से बार बार उस गांव की तरफ़ देखता रहा। शामली कहीं भी नज़र नहीं आई।मै रात भर सो नहीं पाया मैं समझ नही पाया कि बात आखिर क्या है । फ़िर दूसरे दिन जब हरिराम सुबह बंगले पर आया तो ऐसा लग रहा था मानो वो कुछ बोलना चाह रहा है, मगर बोल नहीं पा रहा है। मैं उसके क़रीब जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बैठ गया। मैने कहा हरिराम बोलो जो भी कहना हो साफ़ साफ़ कहो, मुझे भी तो मालूम हो हक़ीक़त क्या है। वो कुछ नहीं बोला। मैने उससे बहुत इसरार किया तो हरिराम ने बताया साहब शामली से मेरा विवाह होने वाला है। मैंने कहा बहुत खुब हरी शामली बहुत समझदार और अच्छी लड़की है। मैं हरिराम से बात जरूर कर रहा था मगर मेरा दिमाग़ कहीं और ही था।
मेरे समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था।तो क्या! मैं ने खुद से पूछा क्या मैं वाक़ई गुनाह की तरफ बढ़ रहा था नहीं, नहीं एसा नहीं हो सकता। लेकिन शामली भी तो मुझसे शायद मुहब्बत करने लगी थी नहीं, नहीं, ये कैसे हो सकता है। फिर हरिराम वापस लोट गया मैं आज रात भी उदास सा बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। सुबह फिर मैं मेहरा गांव की तरफ़ निकल गया।वहां हरिराम मिलगाया कहने लगा साब आप इधर मैंने कहा शामली से मिलना है। मेरा मन कर रहा है कि मैं जल्दी ही वापस अपने शहर लोट जाऊं। हरी मुस्कुराया,उसका चेहरा खिल उठा था, लेकिन फिर भी मेरी कश मकाशदोलो दिमाग के बीच जारी थी ,हम शामली की झोपड़ी के सामने थे, हरी ने आवाज़ दी, शामली, शामली, शामली नहीं आई दादा ने बाहर आकर कहा शामली कहीं बाहर गई है।
हम वापस डाक बंगले में आ गए थे, हरी ने कहा साब आज भोजन में क्या बना दूं, मैंने कहा हरी आज भुख नहीं है रहने दो। मैंने हरी राम से कहा की शामली को बता देना कि में शायद कल वापस लोट जाऊंगा सुबह। हो सके तो मुझसे मिले उसने और दादा ने और तुमने मुझे बड़े अच्छे से मेरी मदद की है। वरना मुझे तो खाना पकाना आता ही नहीं है।सारी रात सो नहीं पाया था, और सुबह हो गई। मेरे घर सबको पता था कि मैं यहां मेहरा गांव में हूं।
सुबह मैं नाश्ता करने के लिए तैयार ही था कि सामने आकर एक कार रुकी उसमें से अंजली उतरते हुए दिखी। मुझको यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैं क्या देख रहा हूँ । माज़ी की चुभन बड़ी तकलीफ़ देह होती है वो बड़े अक़ीदत के साथ मेरे पास आकर मुझसे लिपटकर रोने लगी। आंखों में वही चमक जो कॉलेज के दिनों में हुआ करती थी ।पता नहीं शामली वहां कब से खड़ी ये सब देख रही थी । वो मेरे सामने से गुज़र कर नीचे पगडंडी से होकर उसकी झोंपड़ी की तरफ़ बहुत तेज़ी से जा रही थी मानो दौड़ ही रही हो।मेरा ज़हन बर्फ़ की तरह ठंडा पड़ गया था ।समझ नहीं पाया ये क्या घटित होता जा रहा है । मेरा दिल चाह कही था कि शामली वापस आ जाए।मुझे लगा कि अब मैं शामली से कभी भी नहीं मिल सकूंगा ।अब फ़ैसला भी तो हो चुका था, मुझको वापस अंजली के साथ जाना था न कोई शिकवा था न कोई शिकायत फिर भी ।मुहब्बत के तकाजो़ को वक्ती तौर पर दबाया तो जा सकता है मगर आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है ।अंजली की मुहब्बत का जज़बा होते देखते हुए भी शामली की फ़िक्र और हमदर्दी मुझे सताये जा रही थी । कार आगे बढ़ने लगी थी हरिराम ने खुशी से सामान कार में रख दिया था । मैने हरि को कुछ रुपए दिये और अलग से कहा कि ये कुछ पैसे है शामली और उसके दादा के दे देना। कोई ग़ल्ती मुझसे हो गई हो तो मुआफ़ कर देना हरिराम मुस्कुराया कहने लगा नहीं साहब एसा न बोलो कार थोड़ी आगे बड़ी ही थी कि शामली दौड़ कर आती हुयी नज़र आई वो हाफ़ रही थी ।उसके हाथ में मेरा दिया हुआ शाल था मैं जल्दी से गाड़ी से उतर गया, उसने भी फ़ुर्ती से मेरे हाथ में शाल रखकर कहा साहब वैसा का वैसा ही रखा है। साहब इसकी घड़ी भी हमने नहीं तोड़ी साहब। उसकी आंखों में लाली चमक रही थी, उसने रोते रोते कहा “साहब हम पहाड़ी अनपढ़ लोग हैं । हमको शहरी चीज़ें रास नहीं आती साहब” और वहां से रोते हुए भाग गई।
हरि जो बहुत खुश नज़र आ रहा था उसने दौड़कर शामली को पकड़कर संभाला मैं देख रहा था कि अब दोनों पगडंडियों पर साथ साथ आगे बढ़े जा रहे थे ।और हमारी कार भी तेज़ी से आगे बढ़ रही थी ।कार मैं नहीं अंजली ड्राइव कर रही थी।अंजली बेखबर थी मेरे अंदर के इस तुफ़ान से।
— डॉ . मुश्ताक़ अहमद शाह ‘ सहज़ ‘