ग़ज़ल
दम-दम पर टूटा फिर बिखर गया था मैं।
आजतक समझ ना पाया किधर गया था मैं।
अब तो बिल्कुल यह भी याद नहीं रहता,
किधर से आया हूँ कि किधर गया था मैं।
मख़मल जैसे पानी की क्या सिफ़त करूँ,
दरिया बीच नहा कर निखर गया था मैं।
मेरी नाज़ुक हालत को देख रहे हो,
उस सुन्दर पर्बत के शिखर गया था मैं।
कर लो जो करना जैसा चाहते हो,
मैं सच्च कहता हूं उधर गया था मैं।
यार अकेला छोड़ के अब ना जाया कर,
छोटे बच्चे की भांति सिहर गया था मैं।
बालम पाबंदियों की क्या ज़ुरर्त थी,
आंधियों की भांति विचर गया था मैं।
— बलविन्दर बालम