कविता

नारी का अंतर्मन

जी करता है जाने तुझको,
कैसी थी तुम बचपन में।
चञ्चल थी या चुप चुप रहती
सच कह क्या अंतर्मन में।

कितना मुश्किल होता होगा,
तज कर सब कुछ आ जाना,
मन तो करता होगा देखें
उस घर का कोना कोना।
कैसा गुजरा बीता हर पल
माँ पापा के आँगन में,
जी करता है जाने तुमको
कैसी थी तुम बचपन में।

अब भी क्या उस घर में है सब
कहे जो तेरी कहानी,
तुझको जो प्रिय था सबसे
बची है क्या वो निशानी?
ताल-तलैया गली चौराहे
उस माटी के कण -कण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

गुड्डे गुड़िये अरु सुन्दर कपड़े
जिसे पाने की थी चाह
नहीं देख अलमारी में वो
क्या हृदय से निकली आह?
परत दर परत खोलूँ तुझको
क्या क्या दफन इस धड़कन में,
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में

तुझको शीश नवाता हूँ सुन
सखि तुमने बलिदान दिया
हृदय पर रखकर पत्थर तूने
मुझको तो मुस्कान दिया।
तुझको मैं क्या दूँगा प्रियवर
सब फीका है अर्पण में
जी करता है जाने तुझको
कैसी थी तुम बचपन में।

नारी तुझको नमन करूँ मैं
इस घर को अपनाया है
हृदय में धर पीर वो सारे
पर तुमने मुस्काया है।
छिपा रखा है तुमने आँसू
अपने नैनो के अञ्जन में
जी करता है जाने तुझको
तुम कैसी थी बचपन में।

— सविता सिंह मीरा

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - [email protected]

Leave a Reply