कविता

बारहमासा

’चैत्र’ मे चित चिंतित, चंचल चहु चकोर।
प्रिया बिन सब सूना लगे, ना सुझे कौर॥
’वैशाख’ वैरी विष समान, वल्लरी बन विलगाय।
दोबारा फूल खिलेंगे तभी, अनुकूल रितु को पाय॥
’ज्येष्ठ; ज्वाला ज्वर जवान, तन-मन लागी आग।
प्रेम में बस यह दिया है, मिले दाग ही दाग॥
’आषाढ आया आम्र-बौर, आग आक्रोश आकार।
अकेला मैं सुनो प्रिये, असहाय हर प्रकार॥
’श्रावण’ सारा सम शशि, शीश लगे पूछ ओर।
वह तो करे सब प्रेमवश, सुप्रभात बुरा दौर॥
’भाद्रपद’ भया भ्रमपूर्ण’ भय की शुरुआत।
विरहाग्नि प्रबल हुई’ लगी अंग-अंग खात॥
’आसौज’ आया चौमासा गया, रहा खाली का खाली।
समाज-मर्यादा प्रधान रही, प्रिया कोयल मतवाली॥
’कार्तिक’ कमनीय कौमार्य, काम लगे हर अंग।
पल-पल मैं यही सोचता, स्यात मिले प्रिया संग॥
’मार्गशीर्ष’ मर्ममय मन, मैं मर्माहत मतंग।
मारा-मारा मर रहा’ कब जीत मिले प्रेम जंग॥
’पौष’ प्रिया पास नहीं, परे-परे जाती जाए।
प्राण निकलकर अटके हलक, मरणासन्न कहलाए॥
’माघ’ मारा मर रहा मैं, मिमियाना गया बेकार।
जनता-जनार्दन को सुने नहीं, चुनी हुई सराकार॥
’फाळ्गुन’ फंसा फहमी गलत, बस आश्वासन मिलते।
षड रितु, बारहमाश अरि; क्यों पूल प्रेम के खिलते॥

— आचार्य शीलक राम

आचार्य शीलक राम

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