अलादीन का चिराग है बैक डेट
अलादीन आखिर अलादीन है। इसे जन्नत पाए जाने कितने सौ बरस निकल गये होंगे पर उसका नाम है कि मिन्नतें पूरी कर देने वाले रुहानी फरिश्तों की फेहरिश्त में आज भी बाकायदा दर्ज है और दुनिया भर में बड़ी ही श्रद्धा से नाम लिया जाता है। अब जाने कहां होगा वह तिलस्मी चिराग, इसकी भनक भी पड़ जाये तो मेरे देश के तमाम प्रजातांत्रिक अलादीन सब काम-धाम छोड़कर दिन-रात एक कर ढूंढने में लग जाएं।
चिराग का ओर-छोर न मिले तब भी कोई गम नहीं। महान भारत में ‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ के महामंत्र को सिद्ध करते हुए एक से बढ़कर एक आविष्कारों ने हर बार कोई न कोई करामात दिखाकर सारे जग को चमत्कृत किया है।
आविष्कार भी ऐसे-ऐसे कि अलादीन इस युग में पैदा होता तो उसे भी जगद्गुरु कहे जाने वाले मेरे प्यारे देश के गुरुघण्टालों की विलक्षण प्रतिभा का कायल होकर आत्महत्या कर लेनी पड़ती और चिराग को टुकड़े-टुकड़े कर समन्दर के हवाले कर देना पड़ता।
हम जिस चिराग की बात करने जा रहे हैं उसकी कालिख के कतरे कहां-कहां नहीं गिरे? गौरों की विदाई रस्म के बाद तो देश का शायद ही कोई कोना बचा होगा, इस कालिख से। इन नये-नये नुस्खों का ही तो कमाल है कि सारा का सारा देश नवनिर्माण की राह पर नॉन स्टॉप बढ़ता जा रहा है। यह अलग बात है कि हममें से किसी को यह नहीं मालूम कि आखिर हमें जाना कहां है? इसे ही तो कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा है – कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषुकदाचन।
फल की इच्छा हमने कभी रखी नहीं, इसलिए हर कहीं कांटें ही कांटे नजर आ रहे हैं देश के जिसम पर। और इसीलिए हर जगह काँटे बिछाने में हमने पिछले 75 साल में कहीं कोई कसर बाकी नहीं रखी। हमारी एक पीएम साहिबा को तो फूलों से ही एलर्जी थी, ऐसे में बेचारी करती भी क्या।
इन नुस्खों को अपनाकर नौकरशाहों ने शहंशाह बनकर सोने की चिड़िया कहे जाने वाले मेरे देश को कितना विकास दिया है, कैसी गत बनाई यह किससे छिपा हुआ है। और फिर सफेदपोशों का साथ हो तो ये काले मन वाले जाने क्या-क्या नहीं कर गुजरते? इस मामले में हम अब काले अंग्रेजों के युग में मरते-मरते जीने लगे हैं।
कुर्सी मिलते ही यकायक सिद्ध हो जाने वाले इन अफसरशाहों के पास साम, दाम, दण्ड भेद जैसी नीतियों की बातें अब बेहद घटिया और बौनी होकर रह गई हैं। कौरव-पाण्डवों और दानवों तक को मात दे देने वाले मायावी अस्त्र-शस्त्रों का सदुपयोग कर अब तो ये पूरे के पूरे देश को कंगालों की महा लंका बनाने में माहिर हो गए हैं। अपनी ओर से उधारीकरण(उदारीकरण) में यही तो लोग हैं जो सोने की चिड़िया का सूप निकाल कर अपना शौक पूरा करते रहे हैं और सत्ता, प्रशासन को घर की पालतू चिड़िया मानकर पिंजरे में कैद रखे हुए हैं।
‘‘बैक डेट’’ तो इन तमाम मायावी शक्तियों का सिरमौर है। सदा कालजयी और कहीं पर भी किसी भी विभाग में फिट हो जाने वाले इस रामबाण से कुर्सीनशीनों की कई-कई जमातें स्वर्ग-सा सुख भोगते हुए अफसरी की वैतरणी पार कर चुकी हैं। दिन-रात भिड़े हुए हैं ये। अलादीन के सौ चिरागों से भी बढ़कर है ‘‘बैक डेट’’ का कमाल।
बैक डेट का अजब कमाल
जो आजमाये सो निहाल…
ऊपर से नीचे तक के आदमी की आवश्यकताओं को पूरा करती है बैक डेट। फिर आकाओं की आवश्यकताएं तो आम आदमी से ज्यादा ही होनी चाहिए न। हर युग में आकाओं को च्यवनप्राश खिलाने और गांधी छाप से निहाल कर देने वाले परोपकारी और स्वाभीभक्त नुमाइन्दे रहे हैं। इन्हें अच्छी तरह पता है कि किस पूर्ण अवतारी, अंशावतारी और राग दरबारी को किस समय क्या चाहिए।
देशवासियों की भलाई करने का ठेका ले रखे हुए विभिन्न मार्का की सेवाओं वाले जाने कितने सेवाभावी सरकारी जँवाइयों की जमातें यदि सुरसा की तरह मुंह फाड़कर लंबी-लंबी डकारें लेती रहें तो इसमें बुरा भी क्या है। आखिर इनका स्पेशलाईजेशन भी तो है। इनका अवतार ही इस काम के लिए हुआ है।
ऐसे में भला ‘‘बैक डेट’’ ही तो है, जो इन टाई-पेंट, सूटेड़-बूटेड़ कुम्भकर्णों को हृष्ट-पुष्ट होने के तमाम अवसर प्रदान करती है। भला ये कर्णधार और उनके परिवार सम्पन्न और पुष्ट नहीं होंगे तो देश की समृद्धि का प्रतीक कैसे बनेंगे?
जलकुम्भी और गाजर घास को भी मात करती हुई बैक डेट की तमाम बारीकियां और लाभ कल्याणकारी राज्य की सारी अवधारणाओं की हमारी पुरातन परम्पराओं को गौरवान्वित ही तो कर रहे हैं। सुशासन के संकल्पों को साकार करने में इनकी अहम् भूमिका को सदियों तक याद रखा जाएगा।
वह अफसर अफसर ही क्या जो मौके की नज़ाकत को न समझे और बैक डेट के कमाल से रूबरू न हुआ हो। उसे अफसर रहने का हक किसने दिया है? सीएम और सीएस से लेकर सचिवों, मंत्रियों, कलक्टरों और बेशरमी की तरह जगह-जगह पनप गये विभागों में जहां-तहां कुर्सी में धंसे छोटे-मोटे अफसरशाहों तक ने बैक डेट के करिश्मों का उपयोग कर अपने कितने ही चहेतों को निहाल कर दिया है और खुद भी निहाल हो गये हैं। वे लोग आज भी इसका गुणगान करते नहीं अघाते।
बैक डेट की महिमा को बयाँ करना नामुमकिन है, क्योंकि उसका कोई पार नहीं है, भ्रष्टाचार की सहोदर होने से यह सर्वव्यापी है। ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की ही तरह बैक डेट की भी महिमा अनंत है।
हर अफसर, मंत्री हर दफ्तर और हर कर्मचारी ही नहीं तो हिन्द देश के हर निवासी को पता है कि बैक डेट ही तो है जो अलादीन के चिराग की तरह सब कुछ कर सकने में समर्थ है। नियमों में नहीं होने वाले कामों के अंधेरे में भटके हुओं के लिए तो यह वरदान है।
उन दिनों बेचारा एक ही अलादीन एवं एक ही चिराग हुआ करता था। आज तो अलादीनों की जमातें मंत्रालयों से लेकर सचिवालयों और छोटे से छोटे दफ्तर में यहां-वहां सर्वत्र कुकुरमुत्तों की तरह सर निकाले तलाश रही है- कोई आये और बैक डेट का चिराग जलाने के लिए तो कहे। फिर देखें क्या चमत्कार होता है। ‘परस्परोपग्रहोपजीवानाम्’ की तर्ज पर यह चमत्कार दोनों का ही कल्याण करने वाला है।
बैक डेट का कमाल सौ तालों की नहीं बल्कि असंख्यों तालों की एक चाबी है। इस मास्टर की का हर कहीं हर कोई चाहे जहां उपयोग लेकर अपना काम निकाल सकता है। आम तौर पर बैक डेट संक्रांतिकाल में ज्यादा इफेक्टिव हुआ करता है। जैसे सूर्य और सिंह स्रंकान्ति में कुम्भ के मेले।
आका का ट्रांसफर हो जाए और किसी दूसरे स्थान के लिए फुर्र से उड़ने ही वाले हों कि थाम लीजिये कलाई और कहिएं-साहब, जाते जाते यह काम तो कर ही दीजिए न। इसके बाद में जो कहना है उसे समझाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि हम सब बहुत समझदार मुल्क में पैदा हुए हैं।
साहब, जो मौके की तलाश में गिद्ध की तरह इसीलिए रुके होते हैं और आह्नान करते रहते हैं बैक डेट की महानतम् माया का। भले ही कम अवधि का पर होता है यह जबर्दस्त। साहब जो काम अपने पूरे कार्यकाल में नहीं कर पाते हैं वह ट्रांसफर का आदेश आते ही मात्र दो-चार दिन में कर गुजरते हैं।
यह तो मेरे देश का दुर्भाग्य ही है कि तब भी इस जात पर अकर्मण्यता का आरोप लगाने में लोग नहीं चूकते। इस समय साहब का घर और दफ्तर एक सौ अस्सी की स्पीड़ में देश की तरक्की को पर लगाते दिखता है। बैक डेट के जादूई करिश्मे के जानकार ये लोग इन दो-चार दिनों में वह सब कुछ कर गुजरते हैं जो करना होता है, फिर चाहे उसका जो भी परिणाम हो।
बैक डेट का अचूक अस्त्र हर फाईल को निपटाते वक्त काम आता है। पुरानी तिथियों में आदेश करते जाइयें, फाइलें निपटाते जाइयें और जो कुछ मिले पाते जाइये, आखिर आपका क्या जाता है? डिस्पैच रजिस्टरों में खाली रखे गये कॉलमों की ऊर्वरा भूमि पर बैक डेट का वटवृक्ष न जाने कब से देश के पर्यावरण को नये-नये आयाम देता रहा है।
फिर पोस्टिंग, ट्रांसफर, एपोईन्टमेन्ट, मंजूरी, जैसे महत्त्वपूर्ण जनहित के कार्यों से संबंधित विभागों के अलग-अलग डिस्पैच रजिस्टर हों तो कहना ही क्या, पुरानी तिथियों में आदेश करते जाइयें, कौन पूछने वाला है? भले ही सरकार ने माह भर तबादलों की छूट दे रखी हो मगर हमारे हुक्मरान इसके बाद ही आदेश निकालते हैं और वह भी बैक डेट में, ताकि बहाने बना सकें कि अब कुछ नहीं हो सकता, डेट निकल गई है। कोई सा सरकारी काम हो, निर्धारित अवधि में नहीं करते हुए बैक डेट में करना कितना अधिक लाभकारी होता है इसे ये मूर्ख जनता क्या जाने।
यों भी पुण्य धरा भारतवर्ष में संक्रातिकाल का पुण्य ज्यादा ही माना गया है। साहब के स्थानान्तरण, तिथियों के निकल जाने और सीमा के व्यतिक्रम जैसे संक्रांतिकाल तो बैक डेट के महापर्व होते हैं जब दान-पुण्य का भी विशेष महत्त्व होता है। इस समय के डिस्पैच रजिस्टरों को ही देखा जाये तो इस पुरातन धारणा को परिपुष्ट किया जा सकता है।
आपका कोई कैसा भी काम क्यों न हो, बैक डेट अलादीन का महाचिराग है-
जो मांगोगे वहीं मिलेगा, बैक ड़ेट का कमाल दिखेगा।’’
साध्य या असाध्य कैसा भी कार्य क्यों न हो। ट्रांसफर करने की तिथि निकल गई हो और प्रतिबंध लग गया तब भी क्या हुआ, पिछली तिथियों में धड़ाधड़ आदेश निकालते रहिये, एपोईन्टमेन्ट, परमीशन, टेण्डर, राईटऑफ, फाईल बढ़ाने, जैसे काम करते रहिये, कौन है पूछने वाला। जांच हो तो भी कह दीजिएं पाबंदी से पहले हुआ है।
बैक डेट को कौन चैलेन्ज कर सकता है। पुरानी तिथियों में हस्ताक्षर कर आदेश जारी कर देने की परिपाटी सहकार, सेवा व परोपकार की भगीरथी बहाती रही है। इस गंगा में खुद भी नहाइयें, और औरों को भी जमकर नहलाइये। हर दफ्तर का तट बैक डेट की रसधार से आप्लावित है-
‘‘यह देश है बैक डेट वालों का
लेने ओर देने वालों का
खाने और खिलाने वालों का
मेरे देश के यारों….।’’
बैक ड़ेट का चमत्कार भले ही आंशिक काल के लिए ही सही पर धारा प्रवाह चलता रहता है। जब साहब इसका वाल्व शुरू करते हैं तब जो दरबार में आया वह साहब की कृपाधाराओं से नहा कर निहाल हो उठता है।
यह अलग बात है कि दान-दच्छिना की परिपाटी इस चमत्कार की सांस्कृतिक पुरातनता को गरिमामंडित करती रही है। अंदेशा हो या सरकार चली जाये तो मंत्रालयों से लेकर ग्राम पंचायत तक में जमे जन परतीनिधि अलादीन फाइलों के जरिये अपने व देश के भविष्य की रेखाएं पिछली तिथियों में खींच देते हैं।
बैक डेट के लिए न कोई वर्जनाएं हैं न कोई सीमाएं, न आचार संहिता और न ही जाति बिरादरी का भेद। साम्प्रदायिक सद्भाव एवं सर्वधर्म समभाव की अनोखी मिसाल है यह। जिसकी जितनी ज्यादा श्रद्धा उतना ज्यादा इस चमत्कार का कौशल। वे कितना ही कुछ चिल्लाते रहें कि न खाउंगा, न खाने दूंगा। पर हमारी भूख ही इतनी है कि यह मुँह अजगर की तरह जबड़ा फाड़ता हुआ लपकता ही रहता है। हालांकि बहुत सारे सरकरारी नुमाइन्दे हैं जो राजधर्म का पालन करते हुए पूरी ईमानदारी से काम करते हैं लेकिन उनकी संख्या लगातार घटती जा रही है।
बैक डेट वालों का बस चलता तो ये अपने आपको सीनियर साबित करने के लिए बैक डेट में पैदा भी हो जाते, शादी भी और बच्चे पैदा करने का काम भी बैक डेट में कर लेते। इससे वोटिंग का अधिकार मिल जाता और उमर से पहले ही विवाह भी कर लेते, बाल विवाह के कानूनों से बच भी जाते और बच्चे पैदा कर कुनबा भी बढ़ा लेते।
बैक ड़ेट के आये दिन होने वाले असंख्यों उदाहरणों ने बैक डेट की लोकप्रियता में चार नहीं चार सौ चांद लगा दिये हैं। बैक डेट में किये गये काम की गहराई में जाने की फुर्सत किसे है? सब चोर-चोर मौसेरे और डकैत-डकैत सगे भाई हैं, जो जाने वाला है वह भी और जो आने वाला है वह भी बैक डेट का जहां है वहां उपयोग करता ही है। बैक डेट का चिराग जलाकर उसकी रोशनी में बस हस्ताक्षरों की नन्हीं-सी चिड़िया ही तो बिठानी है। इस पुण्य का भागीदार कौन नहीं बनना चाहेगा? बैक डेट के भक्त लोग मिन्नतें मानते हैं-
ओ जाने वाले, हो सके तो बैक डेट में कर जा,
यूं न हो तो कुछ ले-दे करके ही कर जा…।
जो काम किसी भी समय नहीं हो सकने वाला हो उसके लिए प्रतीक्षा कीजिए साहब के ट्रांसफर की और फिर जाते-जाते ‘‘बैक डेट’’ का सहारा लेकर इस रामबाण का आजमाइयें और सौ फीसदी काम की गारंटी अपनाइयें।
ट्रांसफर के आदेश आते ही साहबों के घरों पर खड़ी कतारें बैक डेट का प्रसाद पाने को उतावली ही तो रहती हैं और साहब हैं कि यकायक उदारता का पिटारा खोल कर राजा हर्ष की दान परम्परा का उल्टा निर्वाह कर अफसरी को कृत-कृत धन्य समझते हैं।
नैतिकता की दुहाई देने वाले ऐसे कौओं और गिद्धों की इस देश में कोई कमी नहीं रही। इसीलिये तुलसीदास व्यथित होकर कहते हैं- ‘‘हंस चुगेगा दाना तिनका, कौआ मोती खायेगा…।
फिर बैक ड़ेट तो श्राद्ध पर्व है इनका। यही वह समय होता है कि जब गधे गुलाबजामुन खाने में व्यस्त हो जाते हैं।
साहब तो हर भक्त की श्रद्धा भावना का आदर करने वाले होते हैं। इसी के वशीभूत होकर बैक डेट के ब्रह्मास्त्र का उपयोग करते हुए बेक डेटर यदि नोटों की अटैचियां, फ्रीज, कूलर, टीवी जैसे स्मृति चिह्न स्वीकारें तो इसमें बुराई क्या है?
ऐसा कर वे भक्तों की भावनाओं के सम्मान की परम्परा को ही तो आगे बढ़ा रहे हैं। जाते-जाते जो काम होते हैं वे आम दिनों में कभी नहीं हो सकते। फिर साहब का कौन-सा घर का काम है। यह सरकारें और दफ्तर तो यूं ही चलते आये हैं और चलते रहने वाले हैं। ऐसे में बैक डेट के पर लगा कर फाइलें हवा में उड़ान भरें तो किसे भी शिकायत क्यों होनी चाहिए।
इसी तरह ही तो हम पहुंच पाएंगे इक्कीसवीं सदी के स्वर्ण द्वीप में। यों भी यही तो पर्व होता है अपने आकाओं के प्रति श्रद्धा के इज़हार का। फिर क्या भरोसा कि नदी-नाव संजोग हो न हो। ऊपर से लगाकर नीचे तक सरकारी कारिंदे उल्टे-सीधे आदेश करवा कर वारे-न्यारे कर जाते हैं और बैक डेट के सहारे भवसागर पार कर जाते हैं। बाद में चाहे तो हश्र हो। फाईल की सीप में बैक डेट का स्वाति जल गिरेगा तो मोती उपजेगा ही, इसे कौन नकार सकता है।
तो आइये, आप भी नहाइये, नहलाइयें, बैक डेट के महासागर में और लगाइयें अपने-अपने बॉस के साथ जमकर गोते। यहां से कुछ न कुछ आपको मिलेगा ही और जो मिलेगा वह अनमोल होगा।
बैक डेट में अलादीन के चिराग की रुह है, और यही तो अलादीन को अमर रखे हुए है। बैक डेट शासन-प्रशासन का कल्पवृक्ष है जो लुटाता रहा है अपने याचकों पर कृपाधाराएं।
बैक डेट जिन्दाबाद, बैक डेटर अमर रहे…
— डॉ. दीपक आचार्य