लघुकथा

उसूलों की जेल

अंशु ने अभी-अभी अपने ससुराल की दहलीज पर कदम ही रखा था तभी धीरज की बुआ ने कहा ” बहु तो बहुत सुंदर है मगर अपने संग और क्या-क्या लाई है ।”
“हटो भी बुआ भाभी को तो अन्दर आने दो ” रुपल ने कहा
पीछे से उर्मिल ने आवाज लगाई ” पहले आरती तो करने दो “
“जाओ रुपल आरती की थाल ले आओ ” तभी उनकी नजर अंशु की कलाई पर गई
“अरे बहु तुमने ये क्या कर दिया हमारे घर में लाह की चूडियां नहीं पहनी जाती ।”
अंशु की सास ने झटपट दहलीज पर ही उसके हाथ से चूडियां उतरवा ली अंशु की आंखो में पानी आ गया ।
दिन भर रस्मों में बित गया अंशु उस बात को भूल गई. रात को उसे फूलों से सजे कमरे में बिठाया गया और सभी दरवाजा बंद कर चले गए, वो पंकज का इंतजार करने लगी ।इंतजार करते -करते उसकी आंख लग गई।
अचानक दरवाजा खुलने की आवाज से उसकी नींद टूट गई । पंकज ने आते के साथ लाईट बंद कर दी और सो गया। सुबह चार बजे कमरे से बाहर निकल गया ,अभी वो कुछ समझ पाती तभी रुपल की आवाज आई “भाभी जल्दी उठो और तैयार होकर नीचे आजाओ ।”
“क्यो कोई पूजा या कहीं जाना है ।”अंशु ने पूछा
“अरे नहीं भाभी इस घर का उसूल है पिताजी के उठने के बाद कोई नही सो सकता सभी को अपने-अपने काम में लग जाना है । पिताजी अनुशासन के बहुत सख्त है सभी को उसका पालन करना पड़ता। यह कहकर वो चली गई ।
अंशु सोचने लगी यह घर है या जेल ? बहरहाल वो तैयार होकर नीचे चली गई । सभी अपने-आपने काम में लगे हुए है कोई किसी से बात नही कर रहा ,वो सोच रही ये घर है या जेल खाना ।
रोज की यही दिनचर्या — सुबह चार बजे सभी जागते और नौ बजे सभी सो जाते । राहुल अंधेरे में कमरे में आता और अंधेरे में चला जाता …!

— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P

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