रिश्तों की चिता
कभी एक आँगन था…
जहाँ माँ की साड़ी की ओट में
दुनिया छुप जाया करती थी।
अब उसी आँगन में,
“सीमा रेखा” खींची गई है…
जमीनी नक्शे से रिश्तों का नापा जा रहा है!
कभी जो थाली में एक साथ खाते थे—
अब “हिस्से” गिने जाते हैं…
और थाली से ज़्यादा “बयान”
महत्त्वपूर्ण हो गए हैं।
भाई नहीं बोलते अब— वो वकील से बात करते हैं।
माँ की रुलाई अब दीवार के उस पार नहीं सुनाई देती,
क्योंकि कानों पर कानूनी हेडफ़ोन चढ़ा है…
और दिल… दिल तो अब
स्टाम्प पेपर से ज्यादा मुलायम नहीं रहा।
जायदादें क्या बाँटी यारों…
बँट तो हम गए थे उस दिन,
जब पहली बार “मेरा” और “तेरा”
घर के भीतर बोला गया था।
वो पहला शब्द ही अंतिम वार था — भाईचारे पर।
कभी जिस ज़मीन पर
हमारे पाँवों के निशान थे,
अब उस पर जूते चलते हैं…
और दस्तख़तों से तय होता है,
कौन किसका, कितना अपना है।
अब भी अगर पूछो —
“क्या मिला इस जायदाद से?”
तो जवाब बस इतना है:
“एक दीवार, चार हिस्से,
और अनगिनत रिश्तों की चिता…”
जायदादें कहाँ बँटी थीं…
जायदादों में बँट गए भाई।
— प्रियंका सौरभ