अपना गांव तो आजकल गुलसितां है लगता
अपना गांव तो आजकल गुलसितां है लगता
हर तरफ रंग बिरंगे फूलों का बाजार है सजता
जिधर भी नज़र दौड़ाएं फूल ही फूल हैं नज़र आते
हर खेत हर पेड़ पौधे पर भँवरे का संगीत है बजता
आमों पर बौर है भँवरे,मधुमक्खियां गुनगुना रही
एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर पराग के लिए मंडरा रही
कोयल की कुहक से गूंजता मधुर संगीत
चमन को हर तरफ खुशबू महका रही
खेत खलिहानों से भीनी भीनी खुशबू आ रही
गेहूं की बालियां एक दूसरे को गले लगा रही
कचनार की कली होकर तैयार लगी है मुस्कुराने
देख कर उसको किसान की नज़र ललचा रही
कोंपलें डाली से अब धीरे धीरे बाहर लगी हैं आने
मलमल सी कोमल मन्द मन्द लगी है मुस्कुराने
फूलों से भरे सेमल के पेड़ का है अजब नज़ारा
पक्षियों की मधुर आवाजें अब मन को लगी हैं भाने
दूर पहाड़ों की तलहटी में खिले हैं बनसखे के फूल
मुश्किल से हैं मिलते चुनने हमें मिलकर है जाना
इतंज़ार बहुत किया पिछले वर्ष भी तुम नहीं आये
आना पड़ेगा तुम्हें अब न चलेगा कोई बहाना
फूलों की सुगंध यह साजन मन को है बहुत सताती
कोंपल आये मन तरसाये याद बहुत है आती
आ जाओ प्रियतम मेरे तुम आकर हिय से लगाओ
न कोई संदेश है आया न आई कोई पाती
— रवींद्र कुमार शर्मा