दोहे
सरदी का मौसम गया, हुआ शीत का अन्त।
खुशियाँ सबको बाँटकर, वापिस गया बसन्त।।
गरम हवा चलने लगी, फसल गयी है सूख।
घर में गेहूँ आ गये, मिटी कृषक की भूख।।
प्रणय दिवस के साथ में, सूरज हुआ जवान।
नभ से आग बरस रही, तपने लगे मकान।।
हिमगिरि से हिम पिघलता, चहके चारों धाम।
हरि के दर्शनमात्र से, मिटते ताप तमाम।।
दोहों में ही है निहित, जीवन का भावार्थ।
गरमी में अच्छे लगें, शीतल पेय पदार्थ।।
करता है लू का शमन, खरबूजातरबूज।
ककड़ीखीरा बदन को, रखते हैं महफूज।।
ठण्डक देता सन्तरा, ताकत देता सेब।
महँगाई इतनी बढ़ी, खाली सबकी जेब।।
— डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक