मुक्तक/दोहा

मोबाइल की कैद

मोबाइल ने छीन ली, हँसी-खुशी की बात।
घर के भीतर भी नहीं, दिल से कोई साथ।।

पिता लगे संदेश में, माँ का व्यस्त है फोन।
बच्चा बोला ध्यान दो, मैं भी हूँ अब कौन?

भाई-बहना पास हैं, फिर भी दूरी आज।
मोबाइल की कैद में, रिश्तों का है राज।।

बचपन भूला आँगना, खेल न छूता पाँव,
बच्चे उलझे गेम में, छूट गया अब गाँव।।

बातें हों ना चाय पर, न हो साथ-संगीत।
मोबाइल ने तोड़ दी, परिवारों की रीत।।

चलो करें अब ठान लें, थोड़ा दें आराम।
फोन नहीं, परिवार में, फिर से लाएँ काम।

रिश्तों की गर्मी गई, बातों की बरसात।
स्क्रीनें हट जाएँ जब, खिल उठे दिन-रात।

मिल बैठें सब एक संग, थी वो प्यारी चाल।
अब मोबाइल बाँटता, घर में केवल जाल।।

पहले थी चौपाल सी, घर की मीठी बात।
अब तो सब चुपचाप हैं, कहे किसे हालात।।

घर की वो रौनक गई, हँसी-ठिठोली साथ।
चुपचाप सब फोन में, रिश्ते हुए अनाथ।।

चलो करें शुरुआत अब, बदलें यह व्यवहार,
फिर से हँसे चमन सदा, जुड़े दिल-परिवार।

सांझ-सवेरे साथ में, हो फिर वो संवाद।
मोबाइल को दें जगह, पर न हो बर्बाद।।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

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