जुगनुओं को साथ ले ले
प्रेम दिखावा मात्र, छल कपटी इंसान है यहाॅं।
संस्कार सब भूल रहे, नहीं धर्म ईमान है यहाॅं।
मानव रहा कहाॅं? अब दानव सा आदमी यह,
मर्यादा रही न अब तो धरती का शैतान है यह।
छोड़ राह के कंटक बिछे, फूलों का पाथ ले ले।
फैला तिमिर बहुत है, जुगनुओं को साथ ले ले।
लज्जा शर्म हया होती संस्कार अगर यह होते।
गुजारे कहीं सत्संग में दिन चार अगर यह होते।
नफरत की न होती दीवारें भाईचारा यहाॅं होता,
दिल लेते जीत यहाॅं, मान सत्कार अगर होता।
महके चमन फिर से वही, प्रेम की सौगात ले ले।
फैला तिमिर बहुत यहाॅं, जुगनुओं को साथ ले ले
काम, क्रोध मद लोभ, सभी मन से तुम छोड़ दो।
नफरत द्वेष पनपे जहाॅं अपना तू रिश्ता तोड़ दे।
जुगनुओं के संग हमें, रवि रश्मियां भी देना प्रभु।
पावन हो हृदय सभी कलुषित मन हर लेना प्रभु।
सोच सुथरी जिन की रहे, वो कोमल हाथ ले ले।
फैला तिमिर बहुत यहाॅं, जुगनुओं को साथ ले ले।
— शिव सन्याल