तेरे बगैर अब
मन रहता बदहवास सा तेरे बगैर अब,
लगे बुझी बुझी सी शाम तेरे बगैर अब।
खिड़की से ताकते रहते सुदूर चांद को,
चुभेगी सारी रात तो तेरे बगैर अब।
आँखें कहाँ वश में , वो मन की ही करें,
करती रही बरसात वो, तेरे बगैर अब।
गजरे की वो लड़ी वहीं चुपचाप है पड़ी,
वेणी में लगाये कौन तेरे बगैर अब।
फक्र क्यों न हम करें की हैं शहीद की बेवा,
ग्रहण चक्र भी करना पड़ा तेरे बगैर अब।
तस्वीर पर यह चक्र तो सूरज सा जँच रहा,
प्रिये माँग सुनी रह गयी तेरे बगैर अब।
— सविता सिंह मीरा