बाज़ार
वर्षों से रमा उसी से सब्जी लिया करती थी। पर, न जाने क्यों जितनी उसकी सब्जियाँ ताजी होती थीं, उतनी ही वो मलिन थी।
उसकी बेतरतीब, मुड़ी तुड़ी साड़ी और निम्न स्तर को देखकर मन में दया आती। आखिरकार एक दिन अपनत्व से रमा बोली, “ताई, बुरा न मानो तो मेरे पास कुछ साड़ीयाँ हैं, अगर..?”
इससे पहले कि रमा अपनी बात पूरी करती, फीकी मुस्कान आसपास के पुरुष दुकानदारों और खरीदारों को कातर नज़रों से देखती वो बोली, “धन्यवाद बीवी जी, आपने इतना सोचा तो। चाहे इधर सब्जी बिकती है, पर कुछ लोग इसे भी बाज़ार ही समझ लेते हैं ।”
अधूरे शब्द और आँखों की नमी बहुत कुछ बोल गई थी।
अंजु गुप्ता ‘अक्षरा’