तो फिर खिड़की खोलो
अभी कुछ समय पहले मिसेज फिल्म देखी,सच बताऊं तो बेहतरीन फिल्म है और बेहतरीन तरीके से फिल्म में सच को प्रस्तुत किया गया है। ऐसा ही तो होता है न कि एक लड़की ढेरों अरमान लेकर शादी के बंधन में बंधती है और अक्सर उसके कोमल सपने रसोई और ससुराल वालों की सोच के बीच तालमेल बैठाने में कहीं खो से जाते हैं। कुछ लड़कियां अपने सपनों के लिए लड़कर बाग़ी घोषित हो जाती हैं और कुछ अपने हाथों से अपने ही सपनों का गला घोंट देती हैं। जो बाग़ी हुई,उनके ऊपर मनमाने इल्जामात लगा दिए जाते हैं और उनकी छवि को दूषित करार दिया जाता है।
यहां विचार करने वाली बात ये है कि आज जहां हम महिलाओं की तरक्की की बात करते हैं, वहां बेटी की तरक्की तो मायने रखती है पर बहू की नहीं। बेटी आगे बढ़ना चाहे तो परिवार उसके साथ खड़ा होता है और वहीं अगर बहू अपने सपनों की बात करे तो उसके पैरों में घर-गृहस्थी और मर्यादा की बेड़ी डाल दी जाती है। यहां एक बात और गौर करने वाली है कि एक औरत भी कभी -कभी दूसरी औरत की तरक्की में बाधा बन जाती है, जैसे मिसेज फिल्म में रिचा की सास पढ़ी – लिखी होने के बावजूद भी अपने पति के हिसाब से चलती है और रिचा से भी यही उम्मीदें लगाई जाती हैं कि वह भी अपनी सास की तरह ही बने।
कितनी अजीब बात है न कि एक औरत जब गुलामी स्वीकारती है तो जाने -अनजाने दूसरी औरतों के पैरों में भी बेड़ियां पड़ने लगती हैं। क्योंकि पुरुष प्रधान समाज में वही औरत सही और श्रेष्ठ है जो मर्दों के हिसाब से चलती है। लेकिन अगर हमें सच में समाज में बदलाव लाना है और सही अर्थों में महिलाओं की तरक्की के विषय में सोचना है तो शुरुआत अपने घर से, अपने ही डायनिंग टेबल से करनी होगी, जहां औरतों को केवल गर्म फुल्के लाने का ऑर्डर ही न दिया जाए बल्कि उन्हें भी साथ बैठकर खाने के लिए पूछा जाए।
हम मिलकर एक ऐसे समाज की नींव रख सकते हैं जहां दूषित मानसिकता की घुटन नहीं बल्कि स्वछंद विचारों की खुली हवा हो। तो फिर आओ और मिलकर खिड़की खोलो।
— अंकिता जैन अवनी