गजल
इन्तजार रहा पर वो आया नहीं,
परिंदा घोंसला लेकर उड़ा तो नहीं ।
शायद दर्द अभी हरे ही हरे लग रहे,
सुकून की दवा किसी ने पहुंचाया नहीं ।
आया चला गया रही पलकें बोझिल,
न तो आवाज दी और रुकी भी नहीं ।
यही तो सच है दुनियां की डगर में,
कौन कहां छुट जाय पता ही नहीं ।
ओझल हुई उनकी साया भी अब तो,
‘शिव’ अवाक मुड़कर देखा तक नहीं।
— शिवनन्दन सिंह