विश्राम
जिन्दगी भर खोदी सड़क
कि एक दिन पहुंच
होगी तुझ तक
पर तेरे आने का
ढंग था विचित्र
जब तू आया
सड़क फालतू
हो गई !
वह श्रम हुआ बेकार
पुरुषार्थ सब व्यर्थ
अपना भविष्य
स्वयं लिखा था मैने
और लिख रहा हूँ
यह मेरी मजबूरी है
पर तू क्यों है बाध्य
मेरे लिखे को
निरंतर जीवंत करने को
क्या कभी मिलेगा विश्राम
हम दोनों को ?
शायद मुझे ही
थमना होगा
जब लिखूंगा ही नहीं
तो क्या अभिनय
करायेगा रंगमंच पर
क्या यही होगा विश्राम ???
— देवेन्द्रपाल सिह बर्गली