कविता

मटके का पानी

चिलचिलाती गर्मी में मटके का पानी,
रुह को रूहानी सी ठंडक दे जाता है,
जलते तन-मन की तपिश को मिटाकर,
सौंधी खुशबू से भर सुकून दे जाता है ।

वो मटके का पानी मेरे गॉंव की सुनहरी,
यादों की झलक फिर से दिखा जाता हैं,
अमृत बन प्राणों में घुल गले से ऊतर यूँ
एकबार नई चेतना शक्ति जगा जाता हैं ।

मटके का पानी धरा की चुंबकीय तरंगों का,
तेज नस-नस में प्रवाहित कर जाता हैं,
मेहनत से थके हारे चूर हुए बदन की पूर्ण,
थकावट को मिटा “आनंद” भर जाता है ।

मटके का पानी पोषक तत्वों से समृद्ध,
शुद्ध जल की गुणवत्ता और भी बढ़ाता हैं,
लू के थपेड़ों से अस्त-व्यस्त-त्रस्त हुए,
तन-मन को राहत के पल दे जाता हैं ।

मटके का पानी बस थोड़ी सी रख-रखाव,
भागती जिंदगी में खोई पहचान माँगता हैं,
आधुनिक मशीनिकरण युग में उन्नत आज,
की मजबूत सुदृढ़ नींव सफल मॉंगता है ।

मटके का पानी आज के नव युवाओं से,
वहीं पुराना लगाव और प्यार चाहता है,
गली मुहल्ले घर-घर में मिट्टी की महक,
उत्तम स्वास्थ्य का तलबगार चाहता है ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

Leave a Reply