कविता
आत्मा मर चुकी
शरीर निष्प्राण हो
रीढ़ हड्डी विहीन
कमर की तान हो,
बिस्तरों पर लेटकर
जो न्यायधीश बन सके
बेहया निर्लज्जों से
क्यों अपेक्षित सम्मान हो?
क्यों न्याय की आस हम
अन्यायी से कर रहे,
लातों के भूत कब कहीं
बातों से सुधर रहे?
कब तलक इनको सहें
क्यों जीते जी मरते रहें?
उठो पुकारो ज़ोर से
दिवारें थर्रा उठें,
कोई साथ दे ना दे,
कान गुनगुना उठें।
गूँज उठे धरा गगन
गूँगे भी मुखर हों,
न्याय का परचम फहरे
धरा गुंजायमान हो।
उठो बढ़ो ललकारो
नेतृत्व का ध्वज सँभालो।
जनजागरण अभियान लक्ष्य
न्याय हित न्याय को ही
हथियार बना लो।
अभेद्य थी रावण की लंका
भेदी गयी थी,
सात योजन का समन्दर
बाधा बड़ी थी।
आग भी उसी लंका में लगी
सत्य पहचान लो,
समन्दर पर सेतु बना था
सत्य पुनः पहचान लो।
हैं बहुत से हनुमान संग में
नल नील जामवंत सब हैं
लंका के भीतर भी त्रिजटा
विभीषण जैसे सन्त हैं।
जमा दो पैर चुनौती का
दोगलों के दरबार में,
अंगद से महाबली गुणवान
ठोकरों में झुका दो आसमान को।
— डॉ अ कीर्तिवर्द्धन