ग़ज़ल
फिर से बुलडोज़र चला।
बच सके जो वो बचा।
बात कड़वी हर भुला।
हमनवा बन हमनवा।
आँख मूँदे चल पड़ा।
धर्म का फरचम उठा।
कुछ समझता है नहीं,
जिसको दौलत का नशा।
रुख उधर का ही करो,
जब चले जैसी हवा।
भाग्य का जब साथ हो,
ज़ह्र बन जाता दवा।
नफ़रती ये दौर है,
चार सू फैली वबा।
— हमीद कानपुरी