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यात्रा वृत्तांत

सिंदूरी धूप ओढ़े नवल- धवल शिखर -“साच पास”

साच पास पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला के बीच पांगी घाटी में प्रवेश के लिए एक दर्रा है। यह समुद्र तल से लगभग14482फीट तथा 4414 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है । यह दर्रा पांगी घाटी का एक तरह से प्रवेश द्वार है जब सड़कें नहीं हुआ करती थीं तब लोग पैदल इस दुर्गम दर्रे को पार करके पांगी घाटी जाया करते थे। जबकि अब यह दर्रा कुछ महीने छोड़कर गाड़ियों के लिए खुला रहता है।
यह स्थान पांगी घाटी का एक तरह से प्रवेश द्वार है ।
यहां जाने के लिए आप जिला मुख्यालय चंबा से भी यात्रा शुरू कर सकते हैं और यदि आप निचले क्षेत्रों से आते हैं तो पठानकोट से चलकर बनीखेत से भी यात्रा शुरू की जा सकती है । पठानकोट से आने वाले पर्यटकों को चंबा न जाकर सीधे बनीखेत से ही यात्रा करना थोड़ी सी नजदीक और सुगम हो जाती है ।
इसकी सुंदरता की बात करें तो जब इसकी उपत्यकाएं सफेद फाहों से रुई की तरह चमक उठती हैं और खिलती हुई धूप की पहली किरण जब इनकी देह पर गिरती हैं तो ये सुनहरी हो उठती हैं ।
यूं तो पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला हमारे घर के आंगन से दिखाई देती है । ऐसे लगता है जैसे बाहें फैलाएं और छू लें । परंतु वहां पहुंचना हो तो लगभग डेढ़ सौ किलोमीटर का सफर बन जाता है।
जिस तरह यह सुबह सुनहरी हो उठती हैं ठीक उसी तरह शाम के समय भी जब धूप अलसाई सी धरती से विदा लेने लगती है तब ये सिंदूरी हो उठती हैं । इनका यह सौंदर्य देखकर भीतर तक पुलकन उद्वेलित करने लगती है। सुबह-शाम दोनों ये सिंदूरी धूप के खूबसूरत मंजर अतुलनीय एवं अवर्णनीय होते हैं । यह सुख तो गूंगे के गुड़ जैसा है सिर्फ महसूस किया जा सकता है बताया नहीं जा सकता ।
लगभग पंद्रह बरस बाद इस घाटी में जाने का विचार फिर हिलोरे लेने लगा था। जून का महीना था और बारह तारीख। हम पांच लोग मैं बेटा बेटी बहु दामाद इस यात्रा पर जा रहे थे । दो चार दिन पहले ही हमने यात्रा का कार्यक्रम बनाया था । यात्रा वाले दिन सुबह जल्दी निकलने की योजना थी सो लगभग आठ बजे हम घर से निकले ।
इस यात्रा में हमारा मुख्य डेस्टिनेशन सच पास का टाप था । इस दौरान हमें एक रात बौंदेड़ी में भी रुकना था । क्योंकि जब मैं अंदवास स्कूल में कार्यरत था तो हम बौंदेड़ी गांव में क्वार्टर लेकर रहते थे । मैं यहां से लगभग दस किलोमीटर पैदल रोज अप डाउन करता था । बच्चों की स्कूलिंग के लिए यहां उस समय एक प्राइमरी व एक हाई स्कूल था। बेटा चौथी में पढ़ता था और बेटी सातवीं में । तब दोनों बच्चों को मैं अपने साथ ले गया था और इन स्कूलों में दाखिल करवाया था ।
बच्चे अपने वे स्कूल फिर देखना चाह रहे थे अपने सहपाठियों से मिलना चाह रहे थे । गांव के कई मित्रों से मिलने की मेरी भी उत्कट इच्छा थी ।सो एक लंबे अंतराल के बाद उस घाटी की कई खूबसूरत खट्टी मीठी स्मृतियां ज़हन में हिलोरें ले रही थीं । एक बार फिर उन स्मृतियों को जीने का समय मिल रहा था।
हमने सुबह नौ बजे तक चमेरा डैम को क्रास कर लिया था । चमेरा बांध की बगल से होते हुए हम धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। चमेरा बांध जिला चंबा की वह लाइफ लाइन है इसके बनने के बाद यहां के जीवन स्तर में बहुत परिवर्तन आया था क्योंकि मैं इसका चश्मदीद रहा हूं । बांध के साथ-साथ हम धीरे-धीरे आगे बढ़ते जा रहे थे। पहाड़ों पर आसपास बसे गांव किसी नए व्यक्ति को जरूर आकर्षित कर सकते हैं हमें इसलिए नहीं कि हम ऐसे मंजर बरसों से देखते आ रहे हैं।
कोटी पुल से आगे बढ़े तो कई जगह हम ने गाड़ी रोक कर फोटो खींचे । कोटी पुल वह जगह है जहां चंबा से आने वाली सड़क और बनीखेत की तरफ से आने वाली सड़क चौक पर मिल जाती हैं। इसके बाद तीसा की तरफ एक ही सड़क जाती है। इस चौक पर पांच सात दुकाने हैं जहां यात्री थोड़ी देर के लिए रुकते हैं चाय पानी पीते हैं और फिर आगे चुराह घाटी की यात्रा पर निकल पड़ते हैं।
जब हम कोटी पुल से गुजरे तो मेरे जहन में अतीत की वो स्मृतियां कौंध आई जब हम इन छोटे-छोटे बच्चों को लेकर और कंधों पर बैग उठाकर कोटी पुल से चौक पर आकर बस पकड़ते थे । लगभग आधा घंटा लग जाता था हमारा इस छोटे से रास्ते को पार करने में । आज हमने अपनी गाड़ी से यह रास्ता पांच मिनट में पार कर लिया था । समय कितनी जल्दी बीत जाता है पता ही नहीं चलता ।
कोटी से जब हम आगे निकले तो धूप तेज होती जा रही थी। परंतु पहाड़ों में इतनी गर्मी नहीं होती। ऊंचे ऊंचे पहाड़ों पर बसे गांव देखकर मन पुलकित हो जाता । पहाड़ों के जीवन की अपनी दुश्वारियां होती हैं जो यहां के लोगों को रोजमर्रा के जीवन में ढोनी पड़ती हैं । फिर भी पहाड़ खूबसूरती में किसी से कम नहीं होते । सर्पीलेले मोड़ों से आगे बढ़ते हुए हम बड़ोह नामक स्थान पर पहुंचे । यहां सुरंगानी की ओर से आने वाली सड़क भी मिल जाती है । यहां से जब आगे निकलते हैं तो दोनों तरफ ऊंचे ऊंचे पहाड़ और बीच में गहरी खाईयां, इनके बीच बहती छोटी सी नदी देखकर मन घबरा उठता है ।
बड़ोह से आगे स्टेशन आता है कल्हेल । पुल को पार करके कोई दो सौ मीटर आगे सड़क के किनारे तीन चार दुकानें हैं। यह ऐसी जगह है यहां तीसा की तरफ से आती हुईं गाड़ियां भी रुकती हैं और चंबा से आती हुईं भी । यहां छोटे-छोटे एक दो ढाबे हैं जहां बहुत अच्छा पहाड़ी खाना मिलता है । अमूमन ड्राइवर कंडक्टर तो यहीं खाना खाते हैं । थोड़ी देर के लिए हम भी यहां रुके और चाय पी।
कल्हेल से थोड़ा आगे चलकर रखालू माता का मंदिर आता है । रखालू का अर्थ है रक्षा करने वाली । यहां भी गाड़ियों वाले रुक कर माथा टेकते हैं और उसके बाद ही अपना सफर आगे बढ़ाते हैं ।शायद ही कोई ऐसी गाड़ी हो जो यहां माथा टेकने के लिए न रुकती हो।
हम वहां पहुंचे तो हमने भी गाड़ी रोकी और मंदिर में माथा टेका तथा साथ बह रहे चश्मे से ठंडा पानी पिया ,फोटो खींचे और फिर चल पड़े अपने गंतव्य की ओर।
जब हम भंजराड़ू बस स्टैंड पर पहुंचे तो लगभग बारह बज गये थे। भंजराड़ू चुराह घाटी का मुख्य बाजार है तथा तहसील हेड क्वार्टर भी है । यहां से दूर दूर तक हरियाते जंगल व धवल पर्वत शिखर अनायास मन मोह लेते हैं ।

मैं कई वर्षों बाद यहां आया था । यहां बाजार में पास ही मेरे मामा जी का घर भी है । हमने वहां फोन किया । हमारे प्लान में आज वहां जाना नहीं था । परंतु उन्होंने कहा पहले हमारे पास आ जाओ फिर चले जाना।
जब बाजार में गए तो एक हलवाई की दुकान हुआ करती थी जहां बबलू नाम का लड़का उसका मालिक था । उसके साथ थोड़ी मित्रता भी थी । उसकी दुकान पर देखा तो वहां कोई और लड़का बैठा था । बाद में पता चला उसे दुनिया से गए तो तीन साल हो गए । एक बार फिर लगा बहुत से लोगों से हम आखरी बार मिल रहे होते हैं ।
हमारी भाभी ने हम सबके लिए खाना बना रखा था दोपहर का खाना हमने उनके पास खाया और फिर बौंदेड़ी के लिए निकल पड़े ।
मैंने आते हुए सुबह ही जसवंत जी व भगत राम जी को अपने आने की सूचना हेतु फोन कर दिया था । यह दोनों ग्राम पंचायत बौंदेड़ी के प्रधान रहे हैं और दोनों ही मेरे बड़े मित्र रहे हैं । वे बड़ी शिद्दत से हमारा इंतज़ार कर रहे थे ।
दुमास पहुंचे तो वहां शबनम की बचपन की सहेली लक्ष्मी उसका इंतजार कर रही थी ।वह उससे मिलने सड़क में आ गई थी । थोड़ी देर बातचीत करके हम बौंदेड़ी के लिए निकल पड़े ।
अभी हमें कोई सात आठ किलोमीटर और जाना था।
जब दो हजार तीन में मेरी ट्रांसफर हुई थी तब यहां बौंदेड़ी के लिए सड़क नहीं थी। दुमास से नीचे उतरकर तरेला नाले को पार करके बौंदेड़ी के लिए जाना पड़ता था । नाले में इतना पानी होता था कि उसके ऊपर से गुजरते हुए डर लगता था। कोई पुल नहीं था । लकड़ी के बड़े-बड़े दो-तीन शहतीर चट्टानों के ऊपर रखे थे उनके ऊपर से होकर गुजरना होता था । स्थानीय लोग तो नहीं डरते थे लेकिन पहले पहल जब हम वहां से गुजरे थे तो बहुत डर लगा था । बड़ी मुश्किल से बच्चों को उठाकर मैंने पार पहुंचाया था । पहली बार जब हम गए थे तो हमें छोड़ने के लिए भंजराड़ू से हमारे मामा लोचू राम साथ गए थे मामा के साथ होने के कारण मुझे यह एहसास नहीं हुआ था कि हम किसी अपरिचित स्थान पर जा रहे हैं। इस नए स्थान पर आने के लिए मुझे कोई भी दिक्कत नहीं कोई थी।
बहुत ही कठिन रास्ता था तब । आज तो गाड़ी के द्वारा जा रहे थे यह सब बदलाव विकास का बदलाव था।
मैं सामने दिखाई देने वाले पहाड़ों की ओर देख रहा था लगभग हर गांव के लिए सड़क बन गई थी।

हम बौंदेड़ी को क्रॉस करके सीधे मंगली चले गए । मंगली गांव बौंदेड़ी से लगभग नौ दस किलोमीटर है । जब मैं यहां था तब बौंदेड़ी से अंदवास के लिए एक घंटा और अंदवास से मंगली जाने के लिए डेढ़ घंटा चढ़ाई चढ़कर जाना पड़ता था । आजकल मंगली तक बस जाती है।
मैंने पहले ही महाराज सिंह जो एक अध्यापक हैं और युवा लेखक हैं उन्हें फोन कर दिया था । वह अंदवास में हमारा इंतजार कर रहे थे ।
इस गांव में मैंने सन् दो हजार तीन से दो हजार सात तक अपनी सेवाएं दी थीं । इसी कारण बहुत से लोगों के साथ मेरे आत्मीय संबंध थे और आज भी हैं । मंगली जिला चंबा का एक तरह से अंतिम गांव है । उसके आगे महलवार धार को पार करके जम्मू कश्मीर का डोडा जिला प्रारंभ हो जाता है यानी यह सीमांत गांव है । यहां जून के महीने में भी ठंडे पानी से नहाना बहुत ही मुश्किल काम है ।इतनी ठंड होती है कि पानी का गिलास भरकर टेबल पर रखो तो उसके बाहर पानी की बूंदे उभर आती हैं। ऐसे लगता है जैसे यह पानी फ्रिज से निकाला हो । यह पहाड़ की चोटी पर बसा गांव प्राकृतिक खूबसूरती की जीती जागती मिसाल है । इसके पास ही दूसरा गांव है मझौर जहां महल नाग का ऐतिहासिक मंदिर है। जहां हर वर्ष मंदिर के प्रांगण में जात्तर लगती है । अगर इसे पर्यटन की दृष्टि से उभारा जाए तो मंगली गांव पर्यटन के लिए बहुत ही सुंदर जगह है ।
हम मंगली पहुंचे तो हमारी एक मिड डे मील वर्कर चमनी को महाराज ने मेरे आने की सूचना दे दी थी । वह हमारा इंतजार कर रही थी। फिर हमने उनके घर में चाय पी । कुछ फोटो खींचे और फिर वापसी में मझौर मंदिर में माथा टेकते हुए वापिस जालू गांव आ गए । जालू में मेरा स्कूल था, अंदवास । अंदवास गांव तो जालू से कोई आधा किलोमीटर दूर है परंतु अंदवास गांव के नाम पर स्कूल जालू गांव में है ।
हम पहले स्कूल में चले गए। न जाने कितनी यादें पुराने वर्किंग प्लेस पर आकर याद आने लगती हैं। मैं भी पुरानी यादों डूबने लगा। मैंने ईश्वर का धन्यवाद किया कि इतने वर्षों बाद फिर मुझे उन यादों को जीने का सौभाग्य मिला।
स्कूल के प्रांगण में हम बातें करते हुए चल रहे थे तभी एक लड़की अंदर से भागती हुई बाहर आई और बोली अशोक सर नमस्ते । अब तो उसका बच्चा आठवीं में पढ़ता है परंतु मेरे लिए वह लड़की ही थी । वह मेरी स्टूडेंट थी शादी के बाद वह वहीं मायके में घर बनाकर बस गई थी । मुझे बोल रही थी “सर मैंने आपको आपकी आवाज से ही पहचान लिया । मैंने बोला हैं तो अशोक सर ही इसलिए आवाज सुनकर मैं दौड़ कर बाहर आई तो आप ही निकले।”
मुझे बहुत अच्छा लगा सन् दो हजार सात में मैं वहां से ट्रांसफर होकर आ गया था । इतने सालों बाद उसने मेरी आवाज से मुझे पहचान लिया । मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी। बच्चों के जहन में एक शिक्षक किस तरह बैठ जाता है तमाम उम्र के लिए आज मुझे महसूस हुआ।
स्कूल के साथ मेरी बहुत सी यादें जुड़ी हैं उन पर अगर लिखना चाहूं तो अलग से एक किताब बन सकती है। इसलिए फिर कभी…।
महाराज हमें अपने घर ले गया था वहां हमने चाय पी। उसके मम्मी पापा से मेरा बड़ा स्नेह रहा है ।वे मुझे अपने बच्चों की तरह चाहते थे। दोनों वृद्ध हो गए हैं परंतु थे घर पर ही। उनसे मिलकर बहुत अच्छा लगा । यहीं बैठे-बैठे अंधेरा उतर आया था ।अभी हमने बौंदेड़ी आना था रात बौंदेड़ी रुकना था वे भी हमारा इंतजार कर रहे थे ।
फिर हम वहां से विदा लेकर बौंदेड़ी आ गये । पूरा गांव मुझे अपने गांव जैसा लगता है। बहुत सालों बाद मिल रहे थे इसलिए बड़ी देर तक खूब बातचीत होती रही। हम अपने पुराने उस क्वार्टर में गए जहां मैंने सपरिवार साढ़े चार साल बिताए थे । जिन दीवारों के भीतर मेरे बच्चों ने अपने भविष्य के सपने बुने थे उसे कमरे में जाना एक बार फिर मुझे किसी मंदिर में जाने की तरह लग रहा था ।
आजकल वहां मेरे मकान मालिक स्वयं रहते हैं बहुत ही नेक दिल इंसान हैं । उम्र में मुझसे से छोटे हैं । उनके पास थोड़ी देर बैठे फिर प्रधान भगत राम जी के घर आ गए ।जसवंत जी को मैंने अब न आने के लिए कह दिया था क्योंकि रात बड़ी हो गई थी । उनसे अब सुबह मिलने की प्लानिंग थी। प्रधान भगत राम जी के घर देर रात तक खूब बातचीत करते रहे और फिर सो गए ।
सुबह नहा धोकर हम जसवंत जी के घर पहुंच गए। घर पास ही है कोई पचास मीटर का फासला रहा होगा ।हमने वहां चाय पी। नाश्ते के लिए उसने बहुत आग्रह किया परंतु इससे पहले प्रधान भगत राम जी ने नाश्ता बना दिया था । मैंने क्षमा याचना के साथ कहा आपका नाश्ता डयू रहा जब दोबारा आएंगे तो आपके पास जरूर करेंगे। फिर गांव में हरीश जी के घर गए । बहुत वर्षों बाद उनको देखा तो उनके चेहरे पर जवानी के दिन प्रौढ़ता में ढल आए थे समय ने चेहरे पर झुर्रियां चस्पा दी थीं। थोड़ी देर वहां भी सुख-दुख बनता और वापस आ गए फिर प्रधान भगतराम जी के घर हमने नाश्ता किया उन्होंने दिन के लिए भी रोटियां बांध दी । उधर मेरे मकान मालिक भी इंतजार कर रहे थे वहां भी उन्होंने रोटी बना दी थी । मैंने कहा आप भी पैक कर दो हम दिन में खा लेंगे और उन्होंने भी रोटी पैक कर दी। कितना अपनत्व था । एक मेरी धर्म बहन थी उसे फोन किया तो उसने कहा भाई मैं तो खेतों में चली गई हूं बहुत दूर है खेत इस वजह से मुझे आने में टाइम लगेगा और हमारे पास भी ज्यादा समय नहीं था क्योंकि हमने जल्दी निकलना भी था इस कारण उससे मिलना नहीं हो पाया।
प्रधान जी की बेटी भी हमारे साथ चल पड़ी ।हमने आज के लिए भंजराड़ू से अपने भतीजे चमन के माध्यम से गाड़ी बुक करवा ली थी । स्कॉर्पियो गाड़ी थी । क्योंकि छोटी गाड़ी में जाना रिस्की भी था इसलिए स्कॉर्पियो बुक की थी ।
हम तरेला पहुंचे तो गाड़ी पहुंच चुकी थी । हमने अपनी गाड़ी वहां खड़ी कर दी और उस गाड़ी में बैठ गए । आज वहां से हमारी यात्रा शुरू हो रही थी ।
तरेला से चले तो पहले गांव देहग्रां आता है । कुछ दूरी पर जाकर चलूंज मोड़ पर दो सड़के हो जाती हैं । एक बैरागढ़ की ओर मुड़ती है जबकि दूसरी देवी कोठी की ओर । देवी कोठी गांव यहां से लगभग दस किलोमीटर दूर एक ऐतिहासिक गांव है ।जहां मां भगवती चामुंडा का ऐतिहासिक मंदिर है कुछ लोग इसे बैरे वाली माता भी कहते हैं। साच पास जाने वाले पर्यटकों को इस स्थान को भी अवश्य देखना चाहिए । पुरातात्विक दृष्टि से यह मंदिर हिमालयी मंदिरों में एक अमूल्य धरोहर है।
हमें तो बैरागढ़ के रास्ते से जाना था । बैरागढ़ एक खूबसूरत पहाड़ की चोटी पर बसा बड़ा गांव है। यहां पुलिस की पोस्ट है जो सभी जाने वालों को स्कैन कर रहे थे और एड्रेस लिख रहे थे । हमने भी अपना एड्रेस लिखवाया और आगे बढ़ गए। यहां आजकल कुछ होटल व कुछ होमस्टे भी हैं । यहां पर्यटक रुक सकते हैं । पीडब्ल्यूडी का एक रेस्ट हाउस भी है । अब यह डेस्टिनेशन धीरे-धीरे पर्यटन के मानचित्र पर उभरने लगा है ।
रास्ते में रानी कोट नाम की एक जगह आती है । जहां खुले हरियाते मैदान व देवदारों के घने जंगल के बीचों-बीच सर्पिली सड़क नयनाभिराम दृश्य उपस्थित करती है।
यहां से दिखती चुराह घाटी की असीम सुंदरता मन को मोह लेती है । मन यहां पहुंचकर इस स्वर्गिक खूबसूरती से मोहित होकर योगी सा होने लगता है । सचमुच ऐसा लगता है कि धरती पर स्वर्ग स्वर्ग उतर आया है । यहां सड़क के किनारे खोखा है । हमने गाड़ी रोक वहां चाय पी और कुछ फोटो खींचे फिर हम आगे बढ़ गए।
इसके आगे कालाबन नामक स्थान आता है जहां सड़क के काम पर लगे हुए पैंतीस मजदूरों को आतंकवादियों ने एक बड़ी सी शिला के साथ बांधकर मार दिया । आतंकवाद की इस निर्मम घटना के गवाह इस स्थान को अब स्मारक में परिवर्तित कर दिया है । मरने वाले सभी मजदूरों के नाम वहां लिखे हैं ।
जब हम आगे बढ़ रहे थे तो बारिश शुरू हो गई बहुत तेज बारिश होने लगी बाहर कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । फिर थोड़ी देर के बाद मौसम ठीक हो गया तब हम ठीक साच पास के नीचे पहुंच गए थे । बड़े-बड़े ग्लेशियर एक अद्भुत अलौकिक दृश्य उपस्थित कर रहे थे । वहां एक खूबसूरत झरना भी था हमने जी भर कर फोटो खींचे और फिर आगे बढ़ने लगे ।टॉप से थोड़ा नीचे पहुंचे तो क्या खूबसूरत दृश्य थे बड़ी-बड़ी चट्टानें और खुले भुरभुरे पहाड़ वनस्पति का नाम और निशान नहीं कोई पेड़ नहीं थोड़ी बहुत घास उस पर उगे हुए सफेद पीले फूल अनायास मं को मोह लेते ।
सड़क कच्ची है लेकिन सड़क में मिट्टी नहीं पत्थर बिछे हैं। हम धीरे-धीरे साथ पास की ओर बढ़ रहे थे अभी दो-तीन किलोमीटर पीछे ही थे तो फिर बर्फ गिरनी शुरू हो गई। देखते ही देखते दस मिनट में कोई तीन-चार इंच बर्फ पड़ गई । सारे पहाड़ फिर से सफेद हो गए हम बड़े-बड़े ग्लेशियरों के बीच से बनी सड़क में से आगे बढ़ रहे थे । गाड़ी चलाने में भी दिक्कत हो रही थी ड्राइवर ने कहा आप घबराना नहीं । यह पहाड़ी रास्ते हैं ऐसे ही होते हैं । हम धीरे-धीरे टॉप पर पहुंच गए ।पहले हम पांगी घाटी की तरफ उतर कर गए ।लगभग दो-तीन मोड नीचे । दोनों ओर बड़े-बड़े ग्लेशियर और बीच में संकरी सी सड़क मीलों तक फैली हुए पहाड़ और बर्फ।हमने वहां खड़े होकर फोटो खींचे फिर वापस आ गये । फिर टॉप पर बने पत्थर के मंदिर में माथा टेका कुछ फोटो खींचे। ठंड बहुत थी अभी तक बर्फ वैसे ही थी । यह जून का महीना यहां उत्तरी भारत गर्मी में झुलस रहा था वहीं साच पास पर बर्फ भरी ठिठुरन मैंने दिल ही दिल कुदरत को सलाम किया।

वहां खड़े एक लड़के ने मुझे बड़े गौर से देखा फिर बोला लगता है आपको कहीं देखा है । फिर उसने मेरे माथे की तरफ देखा और मेरे माथे के निशान को देखकर पहचान लिया और बोला आप अशोक दर्द हैं मैंने ठीक पहचाना न…। मैंने बोला जी बिल्कुल । फिर वह बोला मैं कुलाला से सतीश का बेटा हूं । इतने सालों बाद उस लड़के ने मुझे पहचान लिया था परंतु मैंने नहीं पहचाना था । फिर उससे घर परिवार के बारे में कुशलक्षेम पूछा । उसने कुछ खाने के लिए बड़ा जोर लगाया परंतु हमने वहां चाय पी ली थी ।
उसके बाद हम फिर वहां से वापस आ गए । अब सारा रास्ता उतराई का है तरेला पहुंचकर हमने अपनी गाड़ी ली और अब हमें भंजराड़ू मामा के घर थोड़ी देर के लिए रुकना था । हमने जाते समय रास्ते में ही खाना खा लिया था अब भूख नहीं थी। उनके घर जाकर हमने चाय पी ।उन्होंने बड़ा आग्रह किया कि आज रुक जाओ । अंधेरा होने लगा था परंतु हमें घर पहुंचना था क्योंकि दूसरे दिन बच्चों ने चले जाना था । हम रात के साढ़े ग्यारह बजे के आसपास इस खूबसूरत यात्रा से वापस घर पहुंच गए।
अशोक दर्द डलहौजी चंबा हिमाचल प्रदेश

*अशोक दर्द

जन्म –तिथि - 23- 04 – 1966 माता- श्रीमती रोशनी पिता --- श्री भगत राम पत्नी –श्रीमती आशा [गृहिणी ] संतान -- पुत्री डा. शबनम ठाकुर ,पुत्र इंजि. शुभम ठाकुर शिक्षा – शास्त्री , प्रभाकर ,जे बी टी ,एम ए [हिंदी ] बी एड भाषा ज्ञान --- हिंदी ,अंग्रेजी ,संस्कृत व्यवसाय – राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में हिंदी अध्यापक जन्म-स्थान-गावं घट्ट (टप्पर) डा. शेरपुर ,तहसील डलहौज़ी जिला चम्बा (हि.प्र ] लेखन विधाएं –कविता , कहानी , व लघुकथा प्रकाशित कृतियाँ – अंजुरी भर शब्द [कविता संग्रह ] व लगभग बीस राष्ट्रिय काव्य संग्रहों में कविता लेखन | सम्पादन --- मेरे पहाड़ में [कविता संग्रह ] विद्यालय की पत्रिका बुरांस में सम्पादन सहयोग | प्रसारण ----दूरदर्शन शिमला व आकाशवाणी शिमला व धर्मशाला से रचना प्रसारण | सम्मान----- हिमाचल प्रदेश राज्य पत्रकार महासंघ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय कविता प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए पुरस्कृत , हिमाचल प्रदेश सिमौर कला संगम द्वारा लोक साहित्य के लिए आचार्य विशिष्ठ पुरस्कार २०१४ , सामाजिक आक्रोश द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता में देशभक्ति लघुकथा को द्वितीय पुरस्कार | इनके आलावा कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित | अन्य ---इरावती साहित्य एवं कला मंच बनीखेत का अध्यक्ष [मंच के द्वारा कई अन्तर्राज्यीय सम्मेलनों का आयोजन | सम्प्रति पता –अशोक ‘दर्द’ प्रवास कुटीर,गावं व डाकघर-बनीखेत तह. डलहौज़ी जि. चम्बा स्थायी पता ----गाँव घट्ट डाकघर बनीखेत जिला चंबा [हिमाचल प्रदेश ] मो .09418248262 , ई मेल --- [email protected]

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