पहलगाम का दर्द
पहाड़ों की गुफाओं में, गूंजा एक ओर शोर,
फिर टूट गया अमन चैन का, हज़ारवां वो दौर,
किशोरी हवाओं में, घुला घटा में बारूद का हवा,
धरती ने फिर देखे है, स्वर्ग की धरती पर खून के रंग।
जहाँ बहती थी झीलों की मीठी सी धारा,
वहाँ गूंज उठी गोलियों की अनोखी आवाज,
नन्हे- नन्हे सपनों पर, पड़ा था डर का साया,
फिर किसी माँ ने शांति पूर्वक बेटे को बुलाया।
शांति के मंदिर में, गूंजा तांडव फिर क्यों?
किस नामर्द इरादों ने, पहलगाम को रुलाया,
क्या मज़हब ही सिखाता है, यह जघन्य क्रूरता?
या वहाँ नफरत की खेती है, बस जहालत का पता?
हमें चाहिए फिर वही सुबह का सपनों का उजाला,
जहाँ हर मुसाफ़िर कहे – “ये है कश्मीर, निराला।”
जहाँ बंदूक नहीं, बांसुरी बोले, माँ वैष्णो की जयकारा,
और इंसानियत के गीत फिर खोले, सुंदर सा प्यारा।
चलो मिलकर हमसभी उम्मीद की लौ जलाएं,
जाति ,धर्म को मिटाकर बदला लेकर हम आये,
26 के बदले 56 की सीने को छलनी कर आये,
गिद्धङो भभकि का ज़वाब देकर अपनी आग बुझाये।
पहलगाम को फिर से हम सब गले लगाएं,
नफरत के धागे को चीर कर अब हम सबको,
झीलों की नगरी को फिर से झिलमिलाते रहें,
शांति की चादर बुनें और दुनिया को दिखलायें।
— रूपेश कुमार