बुढ़ापे की धूप-छांव
आज़ अकेले बैठे हुए,
सोचता रहा ,
क्या इस शरीर और मन की में तमाम हसरतें,
पूरी हो गई है,
क्या ख्वाब जो देखे थे मैंने,
उसकी वजह को,
आंखों से देखा हूं,
इस वजह से परेशान होकर,
अक्सर आसमां को निहारते हुए,
सोचता रहता हूं,
बस यादें ताजा हो,
इसकी वजह से ही,
चुपचाप गुमसुम सी जिंदगी में,
बस उपर जाने की कोशिश में,
अक्सर लगा रहता हूं।
हमदर्द दोस्तों की सोहबत आज़ बस अन्तिम पड़ाव पर है,
कुछ बचे हैं,
कुछ रुखसत हो,
रब के यहां आराम कर रहे हैं।
बेटे बेटियों की क्या कहें,
अपनी सखा भी,
बस दूर-दूर रहती है।
बातों में तीखापन है,
इसकी वजह से ही,
मैं ही सम्भल कर रहता हूं,
इस बुढ़ापे को लेकर,
मन में तरह-तरह की बातें,
उठती है,
कौन अपना है,
कौन पराया,
आज़ भी मुझे नहीं मालूम,
बस एक उम्मीद है,
उसके लिए ही,
बस जी रहा हूं,
कुछ हमदर्दी जताने वाले की उम्मीद से ही,
बस आज़ आखिरी ख्वाहिश की जरूरत पूरी करने के लिए ही जिन्दा हूं,
बस जिन्दा हूं, बस जिन्दा हूं।
— डॉ. अशोक, पटना