ग़ज़ल
हम मशक़्क़त क्यों करें, क्या फ़ायदा हो जाएगा
ऑंखें खुल ही जायेंगी जब हादिसा हो जाएगा
टूटती ही जाएँगी जब बिजलियों पर बिजलियाँ
आशियाँ कब तक बचेगा, सानिहा हो जाएगा
मालिकों की चाकरी में मुफ़्लिसी, बेचारगी
हार कर वो आदमी इक राहिला हो जाएगा
जुड़ गया रिश्ता जो ग़म से ज़िन्दगी का रोज़ो-शब
ख़ुद ब ख़ुद फिर वो ग़ज़ल में क़ाफ़िया हो जाएगा
रायगां होगी नहीं “मांझी” की मेहनत, देखना
पर्वतों की कोख में भी रास्ता हो जाएगा
बचपने का स्वाद कब तक चख सकोगे तुम जनाब
जल्द ही परिपक्वता का जायज़ा हो जाएगा
ज़िन्दगी के इस सफ़र में बचपना जो खो दिया
तो अजब बीमारियों का सिलसिला हो जाएगा
रूह को क़िरतास कर रंगे-मुहब्बत तो भरो
शायरी से फिर तुम्हारा राब्ता हो जाएगा
चीर कर ज़ुल्मत की आँधी तुम अकेले तो चलो
इक न इक दिन साथ ‘पूनम’ क़ाफ़िला हो जाएगा
— डॉ. पूनम माटिया