कहानी – मेरा गाँव
बात कोई पुरानी नहीं थी, बस कुछ ही महीने हुए थे शहर आए। एक अच्छी नौकरी, बड़ा सपना और ऊँची इमारतों के बीच कहीं खुद को ढूँढते हुए मैं, आयुष, अब उस मोड़ पर था जहाँ “सफलता” की सीढ़ियाँ चढ़ने की जल्दी थी, पर भीतर एक खालीपन घर कर चुका था।
शहर में सब कुछ था — रौशनी, भीड़, गति। पर एक चीज़ थी जो नहीं थी: “मेरा गाँव”।
एक दिन दफ़्तर से लौटते हुए दरवाज़े के नीचे से एक चिट्ठी दिखाई दी — पीले लिफाफे में, पुराने अंदाज़ की लिखावट। भेजने वाला कोई नाम नहीं था, पर पता देख कर दिल धड़क गया: ग्राम — श्यामपुर, जिला — ग़ाज़ीपुर।
हाथ काँपने लगे। खोलते ही महक आई — पुराने बक्सों में रखे कपड़ों जैसी, या शायद उस पीपल के नीचे की, जहाँ बैठ कर मैं दादी की कहानियाँ सुना करता था।
चिट्ठी किसी नाम से नहीं थी, बस लिखा था:
“तेरे बिना ये आम की डालियाँ बहुत चुप हैं, वो पोखरा भी जहाँ तू कंकड़ फेंक कर लहरें बनाता था, अब सूना पड़ा है। काकी अब भी तेरे लिए लड्डू बना कर रखती है। नदिया पूछती है, तू कब आएगा?
तू शहर में बड़ा आदमी बन रहा होगा, पर तेरा गाँव अब भी तुझे वही बच्चा समझ कर रोज़ राह देखता है।
आ जा बेटा, एक बार फिर से…”
मैं चुपचाप चिट्ठी लिए छत पर चला गया। चाँद सिरहाने आ बैठा था, जैसे गाँव का आँगन वहीँ बिछ गया हो। हवा में वही महक थी — धान की, माँ के आँचल की, काकी के हाथ की।
उस रात बहुत देर तक नींद नहीं आई। आँखें बंद कीं तो वही बचपन लौट आया। कागज़ की नावें, बारिश में भीगना, यारों से रूठना-मनाना, और वो नदिया… जो सब कुछ बहा ले जाती थी — सिवाय यादों के।
सुबह की पहली गाड़ी से मैं गाँव चला गया।
स्टेशन पर उतरा तो एक बच्चा मिला — नंगे पाँव, आँखों में कौतूहल। उसने पूछा, “शहर से आए हो? यहाँ कोई अपना है?”
मैं मुस्कुराया और कहा, “हाँ, पूरा गाँव मेरा है।”
और उस दिन… मेरा सूना दिल सचमुच आबाद हो गया।
— डॉ. निशा नंदिनी भारतीय