ग़ज़ल
जनम दिन पे मां आई मुझको बुलाने,
मुझे मेरे बचपन के सामां दिखाने।
मुझे मां चली फिर नज़र से बचाने,
मुझे काला टीका लगी है लगाने।
कि अब मैं जवां हूं मगर आज भी मां,
मुझे छूने के ढूंडती है बहाने।
मगर वालिदा हमको देना ख़ुदाया,
कि तू हमको चाहे न देना ख़ज़ाने।
अगर मैं कभी देर से घर पेआया ,
तो मां दौड़ी मुझको गले से लगाने।
फ़क़त हाल ही मैंने मां का जो पूछा,
वो बीमारी में भी लगी मुस्कुराने।
यही मेरा बेटा है कहकर मुझे मां,
सहेली को अपनी लगी है दिखाने।
मेरी आंख में एक आंसू जो देखा,
तो मां मेरी सागर लगी है बहाने।
अगर मैंने हल्का भी बोझा उठाया,
तो मां मेरी दौड़ी है कांधा लगाने।
मैं मुफ़लिस हूं बच्चों की मुजरिम हूं कहकर,
कि मां ख़ुद को लगती है अक्सर रुलाने।
— अरुण शर्मा साहिबाबादी