कविता

श्रमजीवी श्रमिक

सुलझाई कुछ कड़ियां कर चिंतन,
जीविकोपार्जन की थी जो उलझन,
संस्थान संग किया यूं एक अनुबंधन,
नौकरी का बना फिर ऐसा गठबंधन ।

तय समय निर्धारित निर्देशित प्रबंधन,
नहीं जहां नियमों का होता उल्लंघन,
सत्यनिष्ठ व श्रम श्रृंगारित हो जीवन,
करता हूँ तन मन उसका अभिनंदन ।

पूर्णत: शिष्टाचारी और अनुशासन,
जिम्मेदारियों का करता हूँ मैं वहन,
कोई समझ न पाता मेरा ये अर्पण,
परिवार के प्रति जो करूं समर्पण ।

श्रमजीवी श्रमिक श्रम ही है पूजन,
कर्म प्रधान कर्मबद्ध कर्म ही अर्चन,
बाधाएं आएं चाहे आएं कोई तूफ़ान,
भाग्य को उत्तम कर्म बनाएं बलवान ।

मजबूत रखता हूँ मैं अपना अंतर्मन,
टूटता नहीं चाहे कितनी भी हो तपन,
वादा निभाता शिद्दत से संग हो मंथन,
कठिनाइयों में होती है पर थोड़ी चुभन ।

बंद कर स्वप्नों में सपनों को जबरन,
इच्छाओं की अपनी करता हूँ हवन,
स्वाहा कर निज “आनंद” का उपवन,
मुस्कुराता हूँ बस खुश रहे प्रियजन ।

— मोनिका डागा “आनंद”

मोनिका डागा 'आनंद'

चेन्नई, तमिलनाडु

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