इतिहास

इतिहास का बोझ: कब तक हमारी पीढ़ियाँ झुकती रहेंगी?”

मुझे यह सोचकर पीड़ा होती है कि आज भी हमारे बच्चों को इतिहास के नाम पर मुग़ल शासकों की गाथाएँ पढ़ाई जाती हैं, जबकि चाणक्य, चित्रगुप्त और छत्रपति शिवाजी जैसे हमारे महान विचारकों और योद्धाओं को पाठ्यक्रम में पर्याप्त स्थान नहीं मिलता। मेरा मानना है कि इतिहास केवल जानने का विषय नहीं, बल्कि आत्मगौरव और पहचान का आधार है। मैं चाहता हूँ कि हमारी आने वाली पीढ़ियाँ अपने गौरवशाली अतीत से जुड़ें और उन्हें वह शिक्षा मिले जो उनके भीतर आत्मविश्वास और राष्ट्रभक्ति जगाए। “जय सनातन” मेरे लिए केवल नारा नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक संकल्प है।

“इतिहास केवल अतीत का आईना नहीं होता, वह आने वाली पीढ़ियों की दृष्टि का आधार भी होता है।” पर अफसोस, भारत के वर्तमान शैक्षणिक ढाँचे में यह आईना धुंधला कर दिया गया है। मुग़ल दरबारों की चमक, विदेशी आक्रांताओं की वीरता और गुलामी के प्रतीकों को जिस तरह से भारतीय इतिहास के केन्द्र में रखा गया है, वह न केवल बौद्धिक अन्याय है बल्कि सांस्कृतिक आत्महीनता का भी बीज है।

आख़िर कब तक हमारे बच्चों पर मुग़ल शासकों का बोझ लादा जाएगा? कब तक हमारी नई पीढ़ी औरंगज़ेब, बाबर, और खिलजी की तलवारों को आदर्श समझेगी, और अपने महान पूर्वजों की गाथाओं से अनजान रहेगी? यह प्रश्न केवल शिक्षा व्यवस्था का नहीं है, यह हमारी आत्मा और पहचान का प्रश्न है।

चाणक्य: रणनीति और राष्ट्र का मस्तिष्क

चाणक्य, जिन्हें कौटिल्य या विष्णुगुप्त के नाम से भी जाना जाता है, कोई साधारण राजपुरुष नहीं थे। वे राजनीति, अर्थशास्त्र और कूटनीति के मनीषी थे। ‘अर्थशास्त्र’ जैसा ग्रंथ लिखने वाला यह विचारक, केवल एक राजा का गुरु नहीं था, वह सम्राटों को राष्ट्रधर्म का बोध कराने वाला मार्गदर्शक था। पर क्या हमारे पाठ्यक्रम में चाणक्य के सिद्धांतों को वह स्थान मिला है, जो वह वास्तव में deserve करते हैं?

किसी भी राष्ट्र की नीतिगत समझ अपने विचारशील नेताओं के दर्शन से बनती है। चाणक्य के सिद्धांत आज भी शासन, कूटनीति और प्रशासन के क्षेत्र में प्रासंगिक हैं। लेकिन जब इतिहास की किताबों में चाणक्य के नाम पर केवल 2-3 पंक्तियाँ मिलती हैं, तब समझ आता है कि ज्ञान के सूर्य को कितनी कृत्रिम छायाओं में ढक दिया गया है।

चित्रगुप्त: धर्म और कर्म के प्राचीन लेखाकार

चित्रगुप्त — एक ऐसा नाम, जो केवल धार्मिक आस्थाओं तक सीमित कर दिया गया है, परन्तु उनका महत्व एक अत्यंत उच्च कोटि के सामाजिक व्यवस्थापक का था। वे कर्म का लेखा-जोखा रखने वाले देवता माने जाते हैं, पर इसका व्यापक आशय आज की पीढ़ी को नहीं सिखाया जाता। चित्रगुप्त न्याय और दायित्व की उस परंपरा का प्रतीक हैं, जो भारतीय दर्शन की रीढ़ है।

अगर हम अपने बच्चों को यह नहीं बताएँगे कि हमारे पूर्वजों ने न्याय, विवेक और उत्तरदायित्व को कितनी ऊँचाई दी थी, तो वे विदेशी न्यायशास्त्रों को ही ‘आधुनिक’ और ‘सर्वोत्तम’ मानते रहेंगे।

छत्रपति शिवाजी महाराज: राष्ट्र के स्वाभिमान की तलवार

छत्रपति शिवाजी महाराज केवल एक योद्धा नहीं थे; वे भारतीय राष्ट्रवाद की जीवंत प्रतिमा थे। उनकी युद्धनीति, उनकी प्रशासनिक सूझबूझ, और उनके धर्मनिरपेक्ष व्यवहार ने उस दौर में भी हिन्दुस्तान की अस्मिता को एक नई परिभाषा दी, जब भारत टुकड़ों में बँटा हुआ था।

पर आज भी कई राज्यों के स्कूली पाठ्यक्रमों में शिवाजी का नाम केवल एक ‘मराठा योद्धा’ तक सीमित कर दिया गया है। क्या यही है हमारी ऐतिहासिक दृष्टि? क्या यह न्याय है उस नायक के साथ, जिसने ‘हिंदवी स्वराज्य’ की कल्पना को तलवार की धार पर जिया?

इतिहास के पन्नों से बहिष्कृत गौरव

इतिहास सिर्फ़ वो नहीं होता जो घटित हुआ, इतिहास वो होता है जिसे बताया गया, पढ़ाया गया और दोहराया गया। जब पाठ्यपुस्तकों में तैमूर और ग़ोरी को विस्तार से पढ़ाया जाए और पृथ्वीराज चौहान, राणा प्रताप, गुरुगोबिंद सिंह, झाँसी की रानी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को हाशिये पर डाल दिया जाए, तो पीढ़ियाँ गुलाम मानसिकता की पाठशाला से ही निकलेंगी।

भारत का इतिहास वेदों में है, उपनिषदों में है, रामायण और महाभारत में है, नालंदा और तक्षशिला में है, आर्यभट्ट, वराहमिहिर और भास्कराचार्य के विज्ञान में है। पर अफ़सोस, बच्चों को इनकी जगह सिखाया जाता है कि किस विदेशी ने भारत में ‘रेल लाया’, ‘डाकघर लाया’ और ‘क़ानून सिखाया’।

समस्या केवल इतिहास की नहीं, आत्मबोध की है

यह विषय केवल पाठ्यक्रम में नाम जोड़ने और हटाने का नहीं है। यह एक गहरी वैचारिक लड़ाई है – हमारे आत्मबोध, आत्मगौरव और सांस्कृतिक अस्तित्व की। अगर हमारी पीढ़ियाँ लगातार वही इतिहास पढ़ेंगी जिसमें वे पराजित, गुलाम और निरीह चित्रित किए गए हैं, तो वे स्वाभिमान और स्वतंत्र सोच कैसे विकसित करेंगी?

हम यह नहीं कहते कि मुग़ल इतिहास को हटाया जाए। हम यह कहते हैं कि उसे भी उसी आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ाया जाए जैसे किसी भी अन्य युग को। और उसके साथ-साथ हमारे नायकों को भी वह सम्मान मिले, जो वे पात्र हैं, दया नहीं।

‘जय सनातन’: कोई नारा नहीं, एक पुनर्स्मरण है

“जय सनातन” का अर्थ केवल धार्मिक जयघोष नहीं है। यह उस मूल चेतना का आह्वान है जो भारत को भारत बनाती है — सहिष्णुता, विज्ञान, दर्शन, आत्मानुशासन और कर्म।

सनातन भारत की आत्मा में चाणक्य की नीति, शिवाजी की शौर्यता, चित्रगुप्त की न्याय भावना, विदुर की नैतिकता, और महर्षि पतंजलि की योगमय सोच शामिल है। जब तक यह आत्मा पाठ्यक्रमों में नहीं झलकेगी, तब तक हमारी चेतना अधूरी ही रहेगी।

निष्कर्ष: समय है पुनर्लेखन का, पुनर्जागरण का

आज आवश्यकता है एक नए भारत के निर्माण की — ऐसा भारत जो अपने अतीत से शर्मिंदा न हो, बल्कि उस पर गर्व करे। हमें अपने इतिहास का पुनर्लेखन नहीं, पुनर्जागरण करना है। हमारे पूर्वजों की गाथाएँ, उनके सिद्धांत, उनके मूल्यों को नई पीढ़ी तक ले जाना कोई साम्प्रदायिक कार्य नहीं, बल्कि राष्ट्रीय उत्तरदायित्व है। अब समय है कि हमारी शिक्षा नीति, पाठ्यपुस्तक समितियाँ और बौद्धिक संस्थान यह सोचें — क्या हम एक आत्मनिर्भर, आत्मगौरव से युक्त भारत की नींव रख रहे हैं, या गुलामी के रंग से रंगी हुई इमारतें बना रहे हैं? क्योंकि जो राष्ट्र अपने नायकों को भूलता है, वह अंततः स्वयं को भी खो देता है। जय सनातन। जय भारत।

— प्रियंका सौरभ

*प्रियंका सौरभ

रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, (मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप) facebook - https://www.facebook.com/PriyankaSaurabh20/ twitter- https://twitter.com/pari_saurabh

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