यमराज मेरा यार – जिसे पढ़कर सभी करें प्यार
सौभाग्य की बात है कि यमराज मेरा यार हास्य-व्यंग्य काव्य-संग्रह की समीक्षा करने का सुअवसर मुझे प्राप्त हुआ है। हालांकि मैंने अभी तक किसी भी पुस्तक की समीक्षा नहीं लिखी है। यह मेरी पहली समीक्षा है। किसी पुस्तक की समीक्षा करना बड़ा ही दुरूह कार्य है।फिर भी कोशिश करता हूँ। पुस्तक ‘यमराज मेरा यार’ जैसा कि नाम से ही पता लग रहा है कि लेखक ने कुछ अलग ही पात्र और शीर्षक को चुना है। जिसे अन्य लेखक/कवि गण शायद ही चुनते होंगे। इसीलिए यह पुस्तक कुछ ज्यादा ही खास है। पुस्तक का आवरण पृष्ठ नाम के अनुसार ही चित्रित है। यमराज जी अपने सवारी पर सवार होके पूरा बन ठन के गदा लिए सिर पर मुकुट धारण किये हुए जैसे किताब के अंदर प्रवेश करने को लालायित हो। यह पुस्तक वरिष्ठ साहित्यकार सुधीर श्रीवास्तव जी के द्वारा लिखी गयी है। यह पुस्तक लोक रंजन प्रकाशन प्रयागराज से प्रकाशित प्रस्तुत संग्रह में कुल 170 पृष्ठ के साथ लगभग 48 रचनाएँ शामिल है। शुरुआती 4 रचनाओं को छोड़ दिया जाए तो बाकी की 44 रचनायें यमराज पर ही आधारित है। इस पुस्तक को लेखक ने अपने गुरुदेव स्वर्गीय सोमनाथ तिवारी जी को समर्पित किया है। इसके बाद शुभाशीष, शुभकामना संदेश खालिद हुसैन सिद्दीकी साहब की है। उसके बाद आशीर्वचन संतोष श्रीवास्तव विद्यार्थी, नव आयामी में प्रथम कृति यमराज के नाम डॉ. अर्चना श्रेया फिर शुभकामनाएं, शुभाशीष संदेश जो पृष्ठ संख्या 21 तक है। इसके बाद लेखक ने अपनी बात में प्रारम्भ से स्मरण करते हुए शुरुआती दिनों को लिखा है। जिसमें लिखा है कि सबसे पहले उन्होंने 1985 में एक वार्षिक पत्रिका में इनकी कहानी पहली बार प्रकाशित हुई। उसके बाद 26 जनवरी 1986 में दैनिक स्वतंत्र भारत में गणतंत्र दिवस पर उनकी कविता पर 20 से 25 रुपये मानदेय के रूप में प्राप्त हुआ। तब से इनका मनोबल और बढ़ा, उसके बाद से ही यह अपनी साहित्यिक यात्रा को और गति देने लगे। लेखक ने अपने निजी जिंदगी व साहित्यिक यात्राओं के बारे में लिखा है। जिसमें जीवन में घटित कुछ खट्टे मीठे अनुभवों को भी सम्मिलित किया है। जो भी उनके मनोभाव हैं वह सभी पृष्ठ संख्या 22 से 26 तक है। उसके बाद अनुक्रमणिका है। तत् पश्चात इस किताब में पृष्ठ संख्या 29 से रचनाओं का दौर शुरू होता है। सबसे पहली रचना भगवान श्री गणेश जी को समर्पित है। उसके बाद भगवान श्री चित्रगुप्त जी की, जय सतगुरु देव जी की यह तीनों रचनाएं दोहा विधा में लिखी गई है। इसके बाद सरस्वती मां की वंदना है-
हे माँ नमन मेरा स्वीकार करो, इस अज्ञानी का भी उद्धार करो। जो बहुत ही सुंदर वंदना लिखी गई है। उसके बाद से शुरू होता है यमराज का ऑफर, यमलोक यात्रा पर जाऊंगा, यमराज का हुड़दंग जो कि हास्य व्यंग्य है। यमराज की नसीहत, यमराज का यक्ष प्रश्न ऐसी तमाम रचनाएँ है जो हँसने पर मजबूर करती है साथ ही साथ चिंतन करने पर भी मजबूर करती है। पूरी किताब ही यमराज और लेखक के बीच के संवाद और भाव को दर्शाता है। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद एक अलग ही आनन्द की अनुभूति होती है। क्योंकि लेखक ने ऐसे पात्र को ही चुना है। जिसे आम लोग सपने में भी देखना और सुनना पसंद नहीं करते। परन्तु इस पुस्तक की रचनाएँ पढने के बाद लोग यमराज को अपना यार बनाने के साथ-साथ उसे संवाद करने में तनिक भी नही हिचकिचाएंगे। पृष्ठ संख्या 56 पर शीर्षक ‘कोल्हू का बैल’ में यमराज ने लेखक से यह बताने की कोशिश की है कि कौन अपना है कौन पराया? यह संवेदनशील रचना है, जो हास्य पर आधारित है। लेकिन कहीं न कहीं यह भी चिंतन करने पर मजबूर करती है कि हमारे आस पास तो सभी है जो अपनेपन का एहसास तो कराते है। पर हमारे कठिन समय में हमारे साथ खड़ा कौन है? इसी तरह सारी रचनाएँ एक से बढ़कर एक है। जिसे पढ़ने के बाद कुछ ना कुछ सीख जरूर मिलती है। प्राण प्रतिष्ठा और दुष्ट आत्माएं अंतिम रचना हैं। जिसमें राम मंदिर को लेकर लेखक ने यमराज से संवाद किया है। और वो लोग जो राम मंदिर और सनातन धर्म को लेकर अनाप शनाप कुछ भी बोल देते है उन पर व्यंग भी कसा है। पुस्तक के आखिरी आवरण पर लेखक आदरणीय सुधीर श्रीवास्तव जी की संक्षिप्त जीवन परिचय दिया गया है। जहां तक मैं देख पा रहा हूँ यमराज का ऑफर गलती से पुस्तक के शुरू में और आखिरी में दो बार प्रकाशित हो गया है। जहाँ तक मुझे लगता है अब की युवा पीढ़ी कुछ लँबी रचनाओं को पढ़ने से गुरेज करते है। छोटी रचनाएँ ज्यादा पढ़ते है। क्योंकि उनका ये कहना है कि आज के व्यस्तता भरी जिदंगी में किसके पास इतना समय है। अब उन्हें कौन समझाए कि भाव और संवाद प्रधान रचनाएँ ऐसी ही होती है।
प्रस्तुत संग्रह साहित्य जगत में अपनी एक अमिट छाप छोड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। जब संग्रह का नाम ही इतना रोचक है ‘यमराज मेरा यार’। तो जाहिर सी बात है पुस्तक की रचनाएं भी उतनी ही रोचक होंगी।
असीम शुभकामनाओं सहित…..।
समीक्षक:
कृष्ण कान्त मिश्र
आजमगढ़ उ०प्र०