ग़ज़ल
देख ली रात उसने सिंदूरी,
देश की ज़ात उसने सिंदूरी।
काम आई न खोखली धमकी,
पाई है घात उसने सिंदूरी।
जीत के दंभ में हरा था वो,
ओढ ली मात उसने सिंदूरी।
याद पुश्तों तलक़ रखेगा अब,
खाई जो लात उसने सिंदूरी।
ख़ुद के कर्मों से ही बुलाई है,
बम की बारात उसने सिंदूरी।
शेर जय के सुने तो तय करली,
इक मुलाकात उसने सिंदूरी।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’