शरणार्थी
अपना ही घर छोड़
मजबूर हो दर दर भटकते रहे
एक आशियाने को
याद आती है अब भी
अपने बनाये उस आशियाने की
जिसे छीन लिया गया हमसे
जान बचाने को मज़बूरन
हम छोड़ आये वहीं उसको
खाली हाथ थामे बच्चों को
निकल पड़े अनजान राहों पर
एक डर लेकर
जीवित पहुँच सकेंगे भी क्या मंजिल पर
वह मंजर तो हमनें नहीं देखा
सुना जरूर अपने पिता दादा से
जिन पर था विश्वास थे हमारे ही पड़ोसी
लाला जी लाला जी जो कहा करते थे
उन्हीं से जान बचाने की खातिर
हम हो गए शरणार्थी
वही कहानी अब भी दोहराई जा रही है
कश्मीर हो या बांग्लादेश