कविता

शरणार्थी

अपना ही घर छोड़ 

मजबूर हो  दर दर भटकते रहे 

एक आशियाने को 

याद आती है अब भी 

अपने बनाये उस आशियाने की 

जिसे छीन लिया गया हमसे 

जान बचाने को मज़बूरन 

हम छोड़ आये वहीं उसको

खाली हाथ थामे बच्चों को 

निकल पड़े अनजान राहों पर

एक डर लेकर

जीवित पहुँच सकेंगे भी क्या मंजिल पर

वह मंजर तो हमनें नहीं देखा

सुना जरूर अपने पिता दादा से

जिन पर था विश्वास थे हमारे ही पड़ोसी

लाला जी लाला जी जो कहा करते थे

उन्हीं से जान बचाने की खातिर

हम  हो गए शरणार्थी

वही कहानी अब भी दोहराई जा रही है

कश्मीर हो या बांग्लादेश

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020

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