ग़ज़ल
अँधेरी रात और जंगल से .गुज़रना मेरा
कोई इंसान जो मिल जाये तो डरना मेरा
कभी चढ़ाइयाँ चढ़ना ये काली घाटी की
कभी तलहटी में चुपचाप उतरना मेरा
तुम्हारी सोच के .मानी बदल रहे हैं सभी
ज़िंदा रहने को समझते हो तुम मरना मेरा
मेरी आँखों में जो पानी है मेरी पूँजी है
इसी पूँजी की बदौलत है निखरना मेरा
रात कट जायेगी मेरी तो सफ़र में लेकिन
तुम को भर देगा ये ताज्जुब से उबरना मेरा
— कैलाश मनहर