शब्द को ज्वाला बना कवि
शब्द को ज्वाला बना कवि, गीत को अंगार कर।
राष्ट्र के सब द्रोहियों पर लेखनी से वार कर।।
शत्रु सीमा पार भी हैं, शत्रु हैं इस पार भी।
बोल जिनके हैं कटारी, तीर भी, तलवार भी।
है जिन्हें संदेह अपने सैनिकों के शौर्य पर,
उन कृतघ्नों के हृदय में आज भय-संचार कर।।
शत्रु के हमदर्द हैं जो, आदतन लाचार हैं।
देशहित के हर कदम की राह में दीवार हैं।
इन सभी के दोगलेपन के मुखौटे नोचकर,
राष्ट्र-निष्ठा का नया वातावरण तैयार कर।।
विश्व में आतंक का पर्याय बनकर डोलती।
मज़हबी तक़रीर से परिवेश में विष घोलती।
क़त्ल करती है बिना सोचे हुए निर्दोष को,
उस घृणा की मानसिकता का प्रबल प्रतिकार कर।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’