युद्ध से युद्धविराम तक
रक्त से लथपथ इतिहास,
धधकते ग़ुस्से की ज्वाला,
सरहदों पर टकराती हैं चीखें,
जिन्हें सुनता कौन भला?
वो शहादतें, वो बारूदी हवाएँ,
टूटते काफिले, बिखरते सपने,
दिल्ली से कराची तक,
हर घर में गूँजती कराहें।
मटमैली लहरों में घुला लाल,
सिंधु का मौन, झेलम की पुकार,
दूर कहीं बंकरों में सुलगते हैं रिश्ते,
धरती माँ की बिंधी मांग की तरह।
लेकिन फिर भी,
आसमान में फड़फड़ाती शांति की सफेद पंखुड़ियाँ,
सियासी चक्रव्यूहों को चीरती,
मौत की चुप्पी को तोड़ती,
एक दिन जरूर आएगी वह सुबह,
जब सरहदें सिर्फ नक्शों में रहेंगी।
नफरत की दीवारें पिघलेंगी,
पुकारेंगी हवाएँ, “बस बहुत हुआ!”
और उस दिन,
युद्ध से युद्धविराम तक की यह तस्वीर,
एक नई इबारत लिखेगी,
रिश्तों की उगती नई कोपलें।
— डॉ. सत्यवान सौरभ